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________________ कालपरूषणा રરૂપ ४६५. पुरिसवेदेसु पढमदंडओ णाणावरणादि० सागरोवमसदपुधत्तं । विदियदंडओ सादादि० तदियदंडओ असादादि० इत्थिभंगो। मणुसगदिपंचगदंडगस्स अणु० ज० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० । सेसं पंचिंदियपज्जत्तभंगो । णवरि पंचिंदियदंडओ तेवहिसागरोवमसदं । की समानता श्रोधके समान बतलाई है और असातादिक दण्डकमें जो प्रक्रतियाँ कही गई हैं उनका तिर्यश्चके अपनी-अपनी व्युच्छित्ति काल तक नियमसे बन्ध होता है, अतः यहाँ इनके कालकी समानता पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान बतलाई है। पुरुषवेद आदि चौथे दण्डकमें जो प्रकृतियाँ कही हैं, उनका देवी सम्यग्दृष्टिके नियमसे बन्ध होता है और देवीके सम्यग्दर्शनकी अवस्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है। इसके बाद यदि वह सम्यग्दर्शनके साथ मरती है तो नियमसे पुरुषवेदी मनुष्य ही होती है, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है। उत्तम भोगभूमिकी मनुष्यिनी अपर्याप्त अवस्थाको छोड़कर नियमसे देवगतिचतुष्कका बन्ध करती है, अत: यहाँ देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। देवीके सम्यग्दर्शनके प्राप्त होने पर पश्चन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका नहीं, इसलिए इन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है। देवीके पचपन पल्य काल तक तो औदारिकशरीरका बन्ध होगा ही। इसके बाद भी पर्यायान्तरमें उसका अन्तमुहूर्त काल तक बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य कहा है । तैजसशरीर श्रादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं। स्त्रीवेदीके अपनी कायस्थिति प्रमाण काल तक इनका नियमसे बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल स्त्रीवेदकी कायस्थितिप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदकी कायस्थितिका निर्देश हम पहले कर ही आये हैं। परघात, उच्छवास, बादर और पर्याप्त ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं। देवीके तो इनका बन्ध होता ही है, पर वहाँ उत्पन्न होनेके पहले अन्तर्मुहूर्त काल तक भी इनका बन्ध होता है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सम्यग्दृष्टि मनुष्यनीके सम्भव है, देवी सम्यग्दृष्टिके नहीं। और मनुष्यनीके सम्यग्दर्शन कुछ कम पूर्वकोटि काल तक ही उपलब्ध होता है, इसलिए यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ४६५. पुरुषवेदी जीवोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है। दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय श्रादिक और तीसरे दण्डकमें कही गई असातावेदनीय आदिकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकदण्डकके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चन्द्रिय पर्यात जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पञ्चन्द्रिय दण्डकके अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट काल एक सौ बेसठ सागर है। विशेषार्थ-पुरुषवेदकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए यहाँ पर प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरणादिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। साता आदि दूसरे दण्डकमें और असाता आदि तीसरे दण्डकमें परावर्तमान प्रकृतियोंका विचार किया है। इसलिए यहाँ पुरुपवेदमें इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका काल स्त्रीवेदी जीवोंके समान बन जाता है, अतः वह स्त्रीवेदी जीवोंके समान कहा है । तेतीस सागरकी आयुवाले देवोंके मनुष्यगति पञ्चकका नियमसे वन्ध होता रहता है, इसके बाद उसके मनुष्य होने पर और देवपर्यायके पहले देवगतिचतुष्कका बन्ध होता है, अतः मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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