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________________ অামিষা २०१ गाणं इत्थिभंगो। इत्थिपुरिसं०दंडओ मोघो। गवरि तिगदिय० सागा. तप्पा. संकिलि। आउचदुक्कं णिरयगदि-णिरयाणु० ओघ । तिरिक्वग-असंप०-तिरिक्खामु० उक्क० कस्स० ? अण्ण० रइ० मिच्छादि० सागा० णिय० उक्क० संकिलि। मणुसगदिपंचग० उक्क० कस्स० ? अण्ण रइ० सम्मादि० साग० सव्वविसु० । चदुजादि-थावर४ उक्क० कस्स०? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० तप्पा०संकिलि० । आदा. उक्क० कस्स० १ अण्ण तिरिक्व० मणुस० तप्पा०विसु० । उज्जोव० ओघं। ४२६. अवगदवे. पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंत० उक्क० कस्स० ? अण्ण० उवसामं० परिवद० अणिय. चरिमे अणुभाग० वट्ट । सादा०-जसगि०उच्चा० ओघं। ४२७. कोध-माण-माय० सादा०-जस०-उच्चा० इत्थिभंगो। सेसं ओघं । लोभे मूलोघं । ४२८. मदि०-सुद० पंचणा०-णवदंसणा-अ सादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-हुंड०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-अप्पसत्थवि' -अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० साकार-जागृत, नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर तीन गतिका पञ्चन्द्रिय संज्ञी जीव है। साता आदि ३२ क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। स्त्री-पुरुषवेद दण्डकका भङ्ग अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त तीन गतिका जीव इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। चार आयु, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्चगति, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी उत्कृष्ट अनुभागवन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि नारकी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का स्वामी है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सवविशुद्ध अन्यतर सम्यन्दृष्टि नारकी उक्त प्रकृतियोके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। चार जाति और स्थावर चतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। आतपके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य आतपके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । उद्योतका भङ्ग ओषके समान है। ४२६. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है? अन्तिम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान अन्यतर गिरनेवाला उपशामक अनिवृत्तिकरण जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है। ४२७. क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले और मायाकषायवाले जीवोंमें सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उञ्चगोत्रका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। तथा शेष भङ्ग ओघके समान है। लोभकषायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है। ४२८. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त १. ता० प्रती० खविगाणं इत्थि-पुरिस० इति पाठः । २. ता. प्रतौ उवसामा० इति पाठः । ३. ता० प्रती उच्चा० । कोध. इति पाठः। ४. आ. प्रती पसस्थवि० इति पाठः । २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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