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________________ १४० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३०६. मणुसोधभंगो पंचिं०-तस० २-पंचमण. '-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-आमि०सुद०-ओधि०-चक्खुदं०-ओधिदंस०-सुक्कले०-सम्मादि०-खइग०-उवसम०-सणि ति । णवरि इत्थि०-पुरिस० सत्तण्णं क० अवत्त० णत्थि। सुक्काए खहग० आउ० मणुसिभंगो। ३०७. अवगद० घादि०४ सव्वत्थोवा अवत्त । भुज० संखेंजगु०। अप्प० संखेंजगु० । वेद०-णामा०-गोद० सव्वत्थोवा अवत्त० । अप्पद० संखेंजगु० । भुज० संखेंजगु० । एवं सुहुमसंप० । णवरि अवत्त० णस्थि । ३०९. मणपज०-संजद० मणुसिभंगो। सेसाणं संखेंजजीविगाणं असंखेंजजीविगाणं अणंतजीविगाणं च रहगभंगो। णवरि संखेजजीविगाणं संखेज कादव्वं । सव्वसम्मादिट्ठीसु गोदस्स भुजगारादो अप्पद० विसे० । एवं भुजगारबंधो समत्तो ३०६. पंचेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंमें सामान्य मनुष्यों के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें सात कर्मों के प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव नहीं हैं तथा शुक्ललेश्यावाले और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आयुकर्मका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। ३०७. अपगतवेदी जीवोंमें चार घातिकर्मों के प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक संख्यातगुणे हैं। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मके प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक है। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायसंयत जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपद नहीं हैं। ३०८. मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवोंमें मनुष्यनियोंके समान भङ्ग है। शेष संख्यात राशिवाली, असंख्यात राशिवाली और अनन्तराशिवाली मार्गणाओंमें नारकियों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि संख्यात राशिवाली मार्गणाओंमें संख्यात कहना चाहिये । तथा सब सम्यग्दृष्टि जीवों में गोत्रकर्मके भुजगारपदके बन्धक जीवोंसे अल्पतरपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार भुजगारबन्ध समाप्त हुआ। , ता. प्रती तस० पंचमणः इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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