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महाबन्ध
पाठभेद के लगभग ये १२५ उदाहरण हैं। इनमें से ता० प्रति के लगभग २२ पाठ ग्राह्य हैं, जिनका हमने शुद्धि पत्र में उपयोग कर लिया है। शेष आ० प्रति के पाठ ही ग्राह्य प्रतीत होते हैं। फिर भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से ये पाठ बड़े उपयोगी हैं। इससे हमें इस बात का पता लगता है कि विषय के अजानकार व्यक्तियों के द्वारा प्रतिलिपि कराने पर कितना अधिक उलट-फेर हो जाता है और केवल एक प्रति को आदर्श मानकर चलने में कितना अनर्थ होता है। जिस प्रति के आधार से बनारस में सम्पादन-कार्य हो रहा है उसे स्वर्गीय श्री लोकनाथजी शास्त्री ने प्रतिलिपि करके भेजा था और वह ता० प्रति से अपेक्षाकृत शुद्ध प्रतीत होता है। ता० प्रति जिस रूप में मुद्रित होकर ताम्रपत्रों पर अंकित की गयी है, वह उसकी प्राथमिक अवस्था ही प्रतीत होती है और उसमें पर्याप्त संशोधन अपेक्षित है; जैसा कि पूर्वोक्त तालिका से स्पष्ट है।
पिछले वर्ष श्रीमान् सेठ बालचन्द्रजी देवचन्द्रजी शहा यात्रा करते हुए बनारस आये थे। उस समय हमारे सहाध्यायी श्री पं० हीरालालजी सि० शा. भी यहीं पर थे। ताम्रपत्र प्रतियों की चरचा उठने पर सेठ सा० ने उनका संशोधन होकर शुद्धिपत्र बनवाना स्वीकार कर लिया था। तदनुसार उन्होंने हमारी सलाह से यह कार्य पं० हीरालालजी को सौंपा था। पण्डितजी के जयधवला के पाठभेद लेते समय इस कार्य में हमने पूरी सहायता की है। यह कार्य ताम्रपत्र मुद्रित प्रति और जयधवला कार्यालय की प्रति (प्रेसकापी) के आधार से सम्पन्न हुआ है। इस आधार से हम यह कह सकते हैं कि जयधवला की जो ताम्रपत्र प्रति हुई है, उसमें जितनी अशुद्धियाँ हैं, उससे कहीं अधिक महाबन्ध की ताम्रपत्र मुद्रित प्रति में वे पायी जाती हैं। वस्तुतः मूलप्रति के आधार से प्रतिलिपि होने के अभी तक जितने प्रयत्न हुए हैं, वे सब अपर्याप्त हैं। होना यह चाहिए कि इस विषय के एक दो अनुभवी विद्वान् जिन्हें विषय का अनुगम हो, वे मूडबिद्री में बैठे
और कनडी की प्राचीन लिपि के जानकार विद्वान् से वाचन कराकर मिलान करते हुए प्रतिलिपि प्रति में संशोधन करें, तभी मूल कनडी प्रति का ठीक रूप दृष्टिगोचर हो सकता है।
सम्पादन की विशेषता
इस समय हमारे सामने दो प्रतियाँ हैं-एक प्रेसकापी और दूसरी ताम्रपत्र मुद्रित प्रति। प्रस्तुत भाग में इन दोनों प्रतियों का हमने समान रूप से उपयोग किया है। आजकल सम्पादन में किसी एक प्रति को आदर्श मानकर अन्य प्रतियों के पाठ टिप्पणी में देने की भी पद्धति प्रचलित है और कुछ विद्वान् इसे सम्पादन की विशेषता मानते हैं। किन्तु इस सम्पादन में हम ऐसा नहीं कर सके हैं। हम ही क्या, धवला के सम्पादन में भी इस नियम का पालन नहीं किया जाता है। धवला के सम्पादन के समय अमरावती प्रति, आरा प्रति, कारंजा प्रति और ताम्रपत्र प्रति सामने रहती हैं। इनमें से विषय आदि को देखते हुए जो पाठ ग्राह्य प्रतीत होता है, वह मूल में दिया जाता है और इतर प्रतियों का पाठ टिप्पणी में दिखाया जाता है। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो एक या अधिक सब प्रतियों के पाठ टिप्पणी में दे दिये जाते हैं और विषयादि की दृष्टि से जो शुद्ध पाठ प्रतीत होता है, वह मूल में दिया जाता है। यहाँ इस विषय को स्पष्ट करने के लिए धवला मुद्रित प्रति के एक-दो उदाहरण दे देना आवश्यक समझते हैं
धवला पुस्तक १०, पृ० ३३३ की पंक्ति ४ में 'जहणियाए वढीए वढिदो' यह पाठ स्वीकार किया गया है। यह ता० प्रति का पाठ है और इसके स्थान में अ०, आ० और का० प्रति का पाठ 'जहण्णियाए वड्ढिदो' है जो टिप्पणी में दिखलाया गया है। किन्तु इसके विपरीत इसी पृष्ठ की पंक्ति १३ में अ०, आ० और का० प्रति का पाठ 'बहुसो' मूल में स्वीकार किया है और ता० प्रति का 'बहुसो-बहुसो' पाठ टिप्पणी में दिखलाया गया है। यह तो जहाँ जिस प्रति के जो पाठ ग्राह्य प्रतीत हुए, उन्हें स्वीकार करने के
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