________________
६६०
सव्वेण अंचणीयं सुपवित्तियतिहुयणं व सोएण । निहय असमंजसं पिव निम्मलनियसंजमगुणेण ॥७२३५ ॥ तवदड्डुकम्मकिट्टं समतण-मणि-लेट्ठकंचणवियप्पं । सुविसुद्धबंभधारिं एमाइअनंतगुणकलियं ॥ ७२३६ ॥ नामेण मयणसीहं दठूण य दो वि हरिसपुलयंगा । वंदति इलातललुलियभालवट्ठा महासूरिं ॥ ७२३७।। तो उवविसंति गुरुणो पयइपवित्तंमि नियडभूभाए । एत्यंतरंमि सा वि य समागया रायवरपत्ती ||७२३८ ॥ तीए वि तहच्चिय परमभत्तिविवसाए वंदिओ सूरी । नीसेसमंति- सामंतमाइपरिवारसहियाए ॥७२३९ ।। उवविट्ठा सा वि तयंतियंमि वीरे निहित्तमण-नयणा । अणुकूलसउणसूइयभविस्सपरिओसपुलयंगी ||७२४०|| एत्थंतरंमि सूरी साहइ धम्मं जिणिदपन्नत्तं ।
पयडइ भवसब्भावं अइविरसं सव्वपरिसाए ।।७२४१।। लद्धावसरा देवी विन्नवइ गुरुं विमुक्कनीसासा ।
'भयवं ! सोलस दिवसा अज्ज पउत्थस्स रायस्स ॥।७२४२।। ता कत्थ अज्जउत्तो ? जीवइ व नव ? त्ति साह मह भयवं ! | बहुदुक्खदुक्खियाए तुह वयणे मज्झ जीयासा ||७२४३ ॥ नियबंधुविप्पओगो तह वि य सुयरयणविप्पओगो य । एहि एसो जाओ नियपिययमविप्पओगो मे ||७२४४ || तां नाह! दुक्खभरभारभारियंगी चएमि नो धरियं । संपइ प (पु) णो बहुदुक्ख भाइ (य) णा मरिउमिच्छामि' ||७२४५॥
Jain Education International
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org