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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ कहियं सुक्कज्झाणं उस्सग्गं पि हु कहेमि संखित्तं । जं आलोयण-निंदण-गरहणकज्जेसु कायव्वं ॥६०९२।। दुस्सुमिण-दुन्निमित्ते महोवसग्गे य देव-माणुसिए । पायच्छित्ते आराहणे य इह होइ उस्सग्गो ||६०९३।। संखेवेण नरेसर ! बारसभेओ तवो समक्खाओ । जं चरिऊण सुविहिया अणंतपावाइं सोसंति ॥६०९४।। बहुदिवससंचियं पि हु तणरासिमसंसयं डहइ अग्गी । तह बहुभवेसु बद्धं घोरतवो डहइ घणकम्मं ।।६०९५।। जह विसमदुग्गभूमि अहिट्ठिओ कवचपहरणसमिद्धो । रिउनिवहं नेइ खयं विसमतवत्थो तह दुकम्मं ।।६०९६।। जह कढिणं पि हु मयणं विलाइ पज्जलियजलणसंगेण । तह य विलाइ असेसं दित्ततवेणाऽवि दिढकम्मं ॥६०९७।। जह जलणतावतवियं मुयइ मलं कंचणं बहुमलं पि । तह य तवग्गिनिदर्ल्ड कम्ममलं गलइ जीवस्स ॥६०९८॥ तं नत्थि किं पि भुयणे न सिज्झए जं तवप्पहावेण । एएणेव तवेणं अणंतजीवा गया मोखं ॥६०९९।। जोइंद ! तए पुट्विं पुट्ठोऽहं अणिममाइसिद्धीओ । सिझंति इमाओ च्चिय तवाओ न हु एत्थ संदेहो ।।६१००।।
आमोसहिमाईओ लद्धीओ होंति तवपहावेण । विण्हुकुमाराईया आगमसिद्धा य दिटुंता ॥६१०१।। कहिओ तुह तवधम्मो संपइ नरनाह ! भावणामइयं । धम्म संखेवेणं साहिप्पंतं निसामेह ।।६१०२।।
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