________________
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
पढमं खलु सीलंगं जा जीवदया असे[स]जीवाण । एगिदिय-बेइंदिय-तिय-चउ-पंचिंदियाणं च ॥६०१५।। जो चयइ अलियवयणं परपीडपयासयं च पेसुन्नं । सो अलियभासणकयं दोसं परिहरइ सच्चेण ॥६०१६।। जो दंतसोहणत्थं तणमेत्तं पि हु न गिण्हइ अदिन्नं । सो अ(5)दत्तादाणकयं पावं न कयाइ बंधेइ ॥६०१७।। नवबंभगुत्तिजुत्तो मण-वइ-काएहिं चयइ जुयईओ । तिरि-मणु-सुरीओ सो खलु अबंभविहियं हणइ पावं ।।६०१८।। जो निहयलोहदोसो परिहरइ परिग्गहं बहुकिलेसं । सो न परिग्गहविहियं किलिट्ठकम्मं समज्जिणइ ॥६०१९॥ पंचासवपरिहीणो पंचिंदियनिग्गहं तओ कुणइ । फरिसण-रसणं घाणं चक्टुं सवणं च एयाई ॥६०२०।। जो फरिसणस्स विसओ कोमलसयणासणाइओ भणिओ । तं वज्जंतो नरवर ! तज्जणियं बंधइ न कम्मं ।।६०२१।। जेण निरुद्धं एयं नरिंद ! रसणिंदियं पयत्तेण । सो जिभिदियलंपडभावकयं बंधइ न पावं ॥६०२२॥ जो न सुयंधे रायं न विरायं जायि(इ) तह य दुग्गंधे । भावइ वत्थुसरूवं तस्स विसुद्धं हवइ सीलं ॥६०२३।।
ठूण सुंदराई रूवाइं न जाइ तेसु अणुरायं । इयरेसु य न विरायं तस्स विसुद्धं हवइ सीलं ॥६०२४।। जो सुस्सरे नरेसर ! न पसंसइ दूसरे न दूसेइ । दसमंगं तस्स फुडं सीलस्स सुनिम्मलं होइ ॥६०२५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org