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जीवाजीवासवसंवरे य तह निज्जरा य बंधो य । मोक्खो इमाइ सत्त वि तत्ताइं जिणेण भणियाई || ४४४ || उवओगलक्खणा जे ते जीवा जिणवरेहिं पन्नत्ता । चित्तं चेयण - सन्ना - विन्नाणाई य उवओगो || ४४५ || विवरीया य अजीवा पावदुवाराइ आसवो होइ । तेसिं च जो निरोहो जिणेहिं सो संवरो भणिओ ||४४६ ॥ तव-संजमाइएहिं कम्मावगमो हु निज्जरा भणिया । मिच्छारकारणेहिं कम्मादाणं तु सो बंधो ||४४७ || गुरुकम्मट्ठविमुको जीवो पयईए उद्धगइगमणो । जत्थच्छइ सो मोक्खो सासयसोक्खो जिणक्खाओ ||४४८ ॥ एयाणं तत्ताणं सद्दहणं सम्मदंसणं होई । तं उवसमाइएहिं लक्खिज्जइ इह उवाएहिं ।।४४९ ।। पयईय व कम्माणं वियाणिउं वा विवागमसुहं पि । अवरा वि न कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥ ४५० || नरविबुहेसरसोक्खं दुक्खं चिय भावओ उ मन्त्रंतो । संवेग्ग ( ग ) ओ न मोक्खं मोत्तूणं किंपि पत्थेइ ||४५१ || नारय- तिरिय - नरामर - भवेसु निव्वेदओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविसवेयरहिओ वि ||४५२ ||
ठूण पाणिनिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसओ अणुकंपं दुहावि सामत्थओ कुणइ ||४५३ || मन्नइ " तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पन्नत्तं" । सुहपरिणामो सव्वं संकाइविसोत्ति [ या ] रहिओ ।।४५४ ॥
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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
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