________________
४२०
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तो परमब्भ(भ)त्तिनिब्भर-हिययब्भंतरफुरंतसंतोसो । पयडियगुणाणुराओ पणमइ वीरो मुणिवरिंद ।।४५९८।। मुणिणा वि ज्झा(झा)णजोगं मोत्तूणं सायरेण वयणेण । दिन्नो ब्भ(भ)वदुक्खहरो सुधम्मलाहो कुमारस्स ।।४५९९।। उवविसइ नाइदूरे विहियाणुमई मुणिंदचंदेण । मुणिचरणकमलफंसणमहग्धवसुहातले कुमरो ॥४६००।। तो भणइ वीरसेणो ‘भयवं ! वेरग्गकारणं गरुयं । किं पि तुह तेण नियतणुनिरवेक्खो चरसि तवचरणं ॥४६०१।। कारणरहियं कज्जं सिज्झइ न कयाइ एस जणवाओ । कज्ज नणु कम्मखओ तस्स य किर कारणं देहो' ॥४६०२॥ तो भणइ मुणी 'सावय ! सच्चमिणं किंतु पेच्छ अच्छरियं । एगं पि कारणमिणं कज्जाइं(इ) य दोन्नि साहेइ ॥४६०३।। एगो वि एस काओ होइ निमित्तं सुहस्स असुहस्स । सुहमेव संजयप्पा असंजयप्पा दुहं जणइ ॥४६०४।। एयसरीरेणं चिय एस(य) सरीरस्स कारणे मणुया । निच्चाई अणिच्चस्स वि पावाइं कुणंति पावमई ॥४६०५॥ बहुसागरोवमंतं खणलवमणसोक्खकंक्खुओ जीवो । अज्जिणइ पावपडलं देहस्स कए असारस्स ॥४६०६।। ससरीरपोसणत्थं पहरइ बहुयाण परसरीराण । हा हा ! खणसुहकज्जे अप्पाणं ठवइ दुक्खंमि ॥४६०७।। एक्वंमि हए जीवे मेरुसमो होइ पावपब्भारो । कह पुण अणंतजीवे हंतूणं तस्सं निव्वाहो ? ||४६०८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org'