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________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ૩૮રૂ बहुमाणभत्तिनिब्भर-सरीरनिरवेक्खपाए पणमंती । उव्वहइ नियनिडाले पवित्तपिउपायरयतिलयं ।।४१९१।। दूरपसारियभुयवित्थरेण आलिंगिऊण नरवइणा । पुण नेहनिब्भरेणं सिरिं(रं)मि परिचुंबिया धूया ।।४१९२।। चिरविरहदुक्खदुब्बल-देहं जणणिं च सा नमोक्करइ । जणणी वि समालिंगइ नियउच्छंगे निवेसेइ ॥४१९३।। तो रायाएसजहाणुरूवपरिकप्पियासणनिविट्ठा । संभासिया कमेणं नरवइणा वीरसेणाई ।।४१९४।। पुण सायरं च पुट्ठा सरीरकुसलाइ सव्ववुत्तंतं । पडिभणियमिमेहिं पि य 'तुह प्पसाएण कुसलं' ति ।।४१९५।। तो भणइ वीरसेणो घणो व्व पढमो विओयगिम्हेण । संतावियाण हिययं पल्हायंतो जणवयाण ॥४१९६।। 'इह पयइसज्जणाणं न होइ नरनाह ! हिययमालिन्नं । अह होइ कह वि देव्वा तहा वि न त्थि(थि)रत्तणं लहइ ॥४१९७।। जइ कहवि अंतरिज्जइ अमयमओ राहुणा व्व हरिणंको । दोज(ज्ज)न्नेणं सुयणो तं नणु कालस्स माहप्पं ।।४१९८।। जे उण कालगुणेणं मणोवियारा हवंति सुयणस्स । ते खणमेत्तं ससिणो संझारायव्व जइ होति ।।४१९९।। तो ते हयमोहतमे तिरोहियासेसमलिणभावंमि । अप्पाणमप्पण च्चिय नाणायरिसंमि पेच्छंति ।।४२००।। निम्मलविवेयलोयण-विलोइयासेसवत्थुसब्भावा । तो ते अविवेयंधं अन्नं पि जणं उवहसंति ।।४२०१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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