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________________ ३६४ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ हरियाए असोएणं चंदसिरीएऽणुमग्गलग्गंमि । तिस्सा तए नरेसर ! जं वित्तं तं तुह कहेमि ॥३९८२।। चंदसिरीविरहानलपुलट्ठदेहेण जारिसी चेट्ठा । जणणि-जणयाइयाणं सा नणु तुह देव ! पच्चक्खा ॥३९८३।। तयणंतरं च देवे विणिग्गए राइणो परियणस्स । देसस्स पुरस्स तहा दुक्खं अच्चब्भुयं जायं ।।३९८४।। परिचत्तण्हाण-भोयण-विलेवणाहरणमाइसक्कारो ।। तह झिज्झइ नरनाहो जह चंदो किण्हपक्खंमि ।।३९८५।। किं मह उवट्ठियमिणं अदिठ्ठपुव्वं अचिंतणीयं च । दुक्खं पच(च्च)क्खीकयनरयानलदाहदुव्विसहं ॥३९८६।। जेहिं तुह लंपडेहिं व आयन्नण-दसणामयं वीयं । ताण तुह विरहदुक्खे पीउव्वमियं च तं जायं ।।३९८७।। इय एवमाइबहुविहपलावपविलीणमणअवटुंभो । तुह विरहमि विसूरइ विचित्तजसनरवई जाव ॥३९८८।। ताव गुरुविरहहुयवहकरालिए परियणे वि तुह देव ! । संपेसिऊण मंतिं आहूओ राइणा अहयं ॥३९८९।। तोऽहं तुच्छपरिग्गहपरिवारो राउलं गओ तुरियं । जोकारिऊण रायं उवविठ्ठो पायमूलंमि ||३९९०।। तो देव ! तह न पुव्विं मह सोओ आसि हिययममंमि । जह तुह विओयदुत्थियविचित्तजसदसणा जाओ ॥३९९१।। तव्वेलं सव्वेहिं वि मह दंसणदीहमुक्सासमिसा । दूरमहं खित्तो इव हिययाओ कयग्घबुद्धीए ॥३९९२।। १. पीतम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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