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________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ सममोयरंतखेयरगणेहिं गयणंगणं मुयंतेहिं । पूरिज्जइ नीसेसं निरंतरं पि हु धरावलयं ॥३८७२ ।। तो वीरसेणदसणलज्जावसमउलियाणणच्छिजुओ । अहिधाविऊण कुमरं आलिंगइ खेयराहिवई ।।३८७३। नियगरुयत्तणसरिसं कुमरेण वि समुचिएण मग्गेण । संभासिओ असोओ ससंभमुभंतनयणेण ॥३८७४।। तह कह वि तेण तइया ववहरियं सुद्धभावहियएण । कुमरेण जहाऽसोओ बंधुव्व सहोयरो जाओ ॥३८७५।। तो भणइ वीरसेणो ‘असोय ! परमत्थकयवियाराण । कहमवि न ठंति हियए अविवेयसमुब्भवालावा ।।३८७६।। अविवेय एव जायइ नरस्स परिणामदारुणो सत्तू । सत्ताण न उण अन्नो अवयारी एरिसो अत्थि ॥३८७७॥ अजहत्थवत्थुनाणं अविवेओ एत्थ होइ नायव्वो । अहिए वि हियत्तमइ हिए वि अहियत्तपडिवत्ती ।।३८७८।। मह होसि तुमं सत्तू अहं पि तुह इय परोप्परवियप्पा । अजहत्थवत्थुविसया कुवियप्पा एस अविवेओ ।।३८७९।। तम्हा अविवेयवसुल्लसंतपसरंतहिययकुवियप्पो । जावच्छसि ताव न तुह विवेयजणिया सुहा भावा ॥३८८०॥ पुव्वकयदुकयकम्मक्खएण अविवेयकारणाभावो । परमत्थभावणाओ विवेयरयणस्स उप्पत्ती ॥३८८१।। परमत्थभावणाए न को वि अन्नो रिऊ जए अत्थेि । अहमेव अप्पण च्चिय सत्तुत्तं जानि अप्पाणा(णं) ॥३८८२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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