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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तो भणइ बंधुजीवा 'पुत्त! तुमं चेव भणसु सव्वं पि । नाऽहं एरिसकज्जे वियक्खणा जेण वुड्ड म्हि' ॥३१९३।। भणइ असोओ 'निसुणसु अम्ब ! तुमं मह इमीए कइया वि । उत्तरमवि नो दिन्नं दूरे मह वयणकरणं तु ।।३१९४।। जइ तुह पच्चक्खं चिय भणिया एसा न मे जया करिही । वयणं तया भविस्सइ मह हिययं कोवपज्जलियं' ॥३१९५॥ इय भणिऊण असोओ चंदसिरि भणइ ‘वच्च उठेहि । पाविही तुह न संपइ विणिच्छओ अज्ज निव्वाहं ॥३१९६।। एत्तियकालं भणिया अणुणयवयणेहिं बहुवियप्पेहिं । संपइ पुण पडिकूलं भणामि जं होइ तं होउ ।।३१९७।। ता चलसु ठासु पुरओ, न चलसि ता संपयं पि विह(हि)सि । मह मणकोवहुयासणजलंतजालासु सलहत्तं ॥३१९८।। को पडियारं काही कुटुंमि मए असेसभुयणंमि ? । सो वि हओ तुह इट्ठो जस्स कुणंती तुमं आसं ॥३१९९।। ता एस निच्छओ मे जं तुह इह्र तमेव आयरसु ।। जइ इच्छसि मं, जीवसि, अह निच्छसि, तो धुवं मरसि ॥३२००।। इय एवं भणिया वि हु खयरस्स न देइ उत्तरं जाम्व(जाव)। ता सो विलक्खिमाए कोवारुणलोयणो भणइ ॥३२०१।। 'पेच्छ इह मह वयणेसुं अहो ! अवन्ना इमीए पावाए । एवं पि बहुं भणिया तहा वि नो उत्तरं देइ ॥३२०२।।
अवहेरी वि विरायइ लज्जा-संभम-भयाइरेगेहिं । 'नारीण न उण निठुर-हिययावन्नाए गरुएसु ॥३२०३।।
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