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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
२३३ कह कीरउ संसारे उवरिट्ठियकालदंडभीमंमि । सिरि-सयण-विसयमाइसु वामोहफलेसु पच्चासो ॥२५४४।। कह लच्छीए (च्छिए) स्थिरासा कीरइ जा विज्जुलव्व खणदिट्ठा । उज्जोओ वि य जिस्सा होइ निमित्तं पमोहस्स ॥२५४५।। नेहक्खयं कुणंती पज्जलइ य सगुणवट्टिसंगेण । दीवयसिहव्व लच्छी अत्थि(थि)र च्चिय बहुअवाएहिं ॥२५४६।। संता वि घरे लच्छी वाहि-जरा-पियविओय-मरणाइं । न हरइ न य अणुयत्तइ एसा जम्मंतरगयं पि ॥२५४७।। को पडिबंधो सयणाइएसु परमत्थओ परजणेसु । धम्मंतरायहेउसु संसारनिवायबंधूसु ॥२५४८।। जइ ता रोगाभिहयं नाणाविहवेयणाअभिद्दवियं । मरमाणं पि न रक्खइ ता किं सयणस्स सयणत्तं ॥२५४९।। रच्चिज्जइ तुच्छसुहे बहुदुक्खफले वि विसयसोक्खंमि । जइ न हवंति सुदुस्सहपियविरहदुहाई कइया वि ॥२५५०।। अणुहूयं सुरलोए विसयसुहं तेण नागया तित्ती । ता कह संपइ होही रंकसुहेणं व एएण ।।२५५१॥ ता सव्वहा विणिज्जियसुरासुरो जाव पसरइ न मच्चू । ता वयगहणेणम्हे पावेमो जम्मसाफल्लं ॥२५५२॥ तो निम्मलेण भणियं ‘एवं एयं न अन्नहा भाय ! । गुरुयणलद्धाएसा तुरियं कज्जे पयट्टम्ह' ।।२५५३।। आपुच्छिऊण जणणिं जणयं च सुधम्मसामिपासंमि । अकलंकजिणाययणे इहेव ते दो वि निक्खंता ॥२५५४।।
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