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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
अइतुच्छं चिय रज्जं इंदत्तं पि हु न देइ मह सोक्खं । जं वैरिपराहवदुत्थियस्स सुयविरहदुहियस्स ।।१७१९ ।। दारिद्दं चिय सोहइ अहिमाणधणाण नवर परदेसे । रज्जं तु अदीसंतं सत्तु - मित्तेहिं तावेइ ॥१७२०॥ दूरीकयनियसेसस्स मज्झ सुयविरहियस्स दीणस्स । सत्तुपराभवियस्स य रज्जमिणं गोत्तिबंधो व्व ।। १७२१ ।। निहओ नरसीहेणं सूरो त्ति जयम्मि जो हुओ अजसो । तं मज्झ वीरसेणो पुत्तो च्चिय जइ परिप्फुरइ ।। १७२२ ।। दिट्ठा एगभवम्मि दोन्नि भवा नवर सूरसेणेण । राया जंबूद्दीवे पुण जाओ धाइसंडम्मि ।।१७२३।। एयाइं ताइं विसरिसहयविहिणो विलसियाइं विरसाई । तीरंति जाई मणे वि चिंतिउं निउणबुद्धीहिं ।।१७२४॥ जं न कयाइ वि सुव्वइ साहिप्पंतं व जणइ जं अलियं । हेलाए विही तं चिय अकज्जनिरओ कुणइ कज्जं ॥ १७२५ ।। विहिपरवसाण पुरिसाण एत्थ सव्वंपि होइ विवरीयं । पच्चक्खं मह जायं अप्पाणुहवेण नीसेसं ।।१७२६॥ चिंतिज्जंतो वि मणे उत्तासं जणइ जो नरिंदाण । सो वि मह विकमो इह रणम्मि विहिणा कओ विहलो ।।१७२७ | एगागी जेण रणे तणं व मन्नामि सत्तुसंघायं ।
तं पि मह साहसं विहिवसेण हासं जणे जायं ॥ १७२८।। पयडो जो वैरिवहेण सव्वदेवाण खेयराणं च ।
सो ववसाओ विहिणा विसायभावेण मह जणिओ ।।१७२९॥
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