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________________ ३६ | अमराष्टकम् निरातंकवृत्तिः सदानन्द - भोक्ता, प्रगल्भ: पुनीत: अहंभाव हीन: । स्वयं लब्धमुक्ति: नराणां च नेता, जगत्कालकूटात् च त्राता महेशः ॥ ४ ॥ वे सदैव निर्भय रहने वाले तथा दूसरों को निर्भयता प्रदान करने वाले थे। वे सर्वदा आत्मानन्द का अनुभव करते थे। वाक्पटु, पवित्र, निरहंकारी, मुक्त-पथ के पथिक, मुक्ति-पथ के पथ-प्रदर्शक तथा संसार के विषम-विष से वे सबकी रक्षा करने वाले थे। न लोष्टे विरक्तिः न रत्नेऽनुरक्तिः, नरके घृणा नापि राज्ञि प्रसक्ति: । मदीयं त्वदीयं न कश्चिद् विचारः, सदा साम्ययोगी सदैवैकदर्शी ॥ ५ ॥ उनकी न तो मिट्टी के ढेले में विरक्ति थी और न ही रल में आसक्ति । न दीन-हीन के प्रति घृणा थी और न ही शासकों के प्रति अनुराग । अपने-पराये का भाव नहीं रखते हुए वे सदा साधक एवं समदर्शी थे। न वस्त्राभिलाषी न चाकाशवासी: स्वयं मध्यमार्गी विचारे प्रचारे । उदारः वदान्य: सदा तत्त्वद्रष्टा, हितैषी परार्थानुचिन्तानिमग्नः ।। ६ ॥ वे न वस्त्रों के अभिलाषी थे और न सर्वथा दिगंबर । आचार-विचार एवं प्रचार में वे मध्यमार्गी, उदार, महान् दानी और तत्त्वज्ञ थे तथा दूसरों की ही हित चिन्ता में सतत निमग्न रहते थे। तदीया सुकीर्तिः दिशः पूरयित्वा प्रयाता दिवं गीयमानाऽप्सरोभिः । शरीरे विनष्टे यशकाय-रूपे, जरामृत्युभीत्या विमुक्तः स्थितोऽसि ॥ ७॥ उनका यश दिशाओं को व्याप्त करने के अनन्तर स्वर्ग में पहुँचा, जहाँ की देवाङ्गनाएँ उसे निरंतर आदरपूर्वक गाती रहती हैं। पार्थिव शरीर तो भले ही विनष्ट हो गया किन्तु वे यश: शरीर से वर्तमान बुढ़ापा और मृत्यु के भय के सर्वथा मुक्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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