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________________ ३२ । महावीराष्टक-प्रवचन संयोग से उसे एक दिन एक वैद्य मिल जाता है । उससे भी वही प्रश्न पूछता है-प्रकाश क्या है? वह समझ जाता है कि यह अंधा है। उसकी आँखों का उपचार करता है और अंधे को दिखाई पड़ने लगता है। अब उसने स्वयं प्रकाश देखा । अंधे को प्रकाश के लिए उपदेश की नहीं, वैद्य की जरूरत है। । हमारी आँखों पर भी अज्ञान एवं मोह के जाले आ गए हैं। कौन इन अंधी आँखों को रोशनी देगा? अंधे जीवनभर ठोकरें खाते फिरते हैं। हाथ पकड़कर घमने वाले नहीं, हाथ में लकड़ी थमा देने वाले नहीं और प्रकाश की बातें करने वाले भी नहीं। हमारे लिए तो वह महापुरुष है, ज्ञानी है, परमात्मा है, जो वैद्य है । इलाज करके अंधत्व मिटाता है, आँखों की ज्योति देता है। भागचन्द्र कहते हैं महामोहातंक-प्रशमनपराऽऽकस्मिक भिषग, निरापेक्षो बन्धुर्-विदितमहिमा मंगल-करः । शरण्यः साधूनां भव-भय-भृतामुत्तम-गुणो, महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे।। भगवान् महावीर मोह के रोग को दूर करने वाले भिषग् अर्थात् वैद्य है । मोह के अंधत्व में सत्यासत्य, हिताहित का विवेक न होना स्वभाविक है । ऐसा जीवन तो भयग्रस्त ही होगा। कहाँ होगा मंगलमय, आनन्दरूपी कुछ? दुःखाते मनुष्य का कौन शरण्य होगा? महावीर के युग में छुआछूत, ऊँच-नीच, सवर्ण-अवर्ण आदि कुप्रथाएँ थीं। ऐश्वर्य, श्रेष्ठ जीवन और सुख-शांति पाने के लिए बड़े-बड़े यज्ञ होते थे, जिनमें हजारों निरीह, मूक पशुओं की, मनुष्यों तक की बलियाँ दी जाती थीं। मनुष्य इतना अंधा हो गया था कि जीवित प्राणी में अपने सदश अस्तित्व को, जीवन को नहीं देख पा रहा था। जीने की चाह जैसी हमारी है, वैसे ही औरों की भी है, इसका परिबोध न था। इस अंधत्व में केवल एक मांग है—मुझे सुख चाहिए, जैसे अंधा प्रकाश मांगता है। महावीर ने दृष्टि दी, अंधी आँखों को रोशनी दी। लोग अहोभाव से कह उठे-चक्खुदयाणं । चक्खुदयाणं अर्थात् आँख देने वाला। गुरु अपने अंधे शिष्य के लिए दीपक नहीं जलाता है, सूरज से भी प्रार्थना नहीं करता है । वह शिष्य की आँखें खोलता है। अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः । महावीर ऐसे भिषक हैं, जो दृष्टि देते हैं। लेकिन उन्हें गुरु बनने की चाह न थी। चेलों से पैर पुजवाने की चाह न थी और न ही प्रशंसा लूटनी थी.। कोई कामना कोई आकांक्षा और कोई स्वार्थ नहीं था इसके पीछे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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