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१६ | महावीराष्टक-प्रवचन
महान् भक्तराज, भक्ति-स्तोत्र के रचनाकार भागचन्द्र भगवान् महावीर के इसी दिव्य रूप को स्मृति में ला रहे हैं
नमन्नाकेन्द्राली - मुकुट - मणि-भा-जाल-जटिलं, लसत्पादाम्भोजद्वयमिह यदीयं तनुभृताम् । भवज्वाला-शान्त्यै प्रभवतिजलं वा स्मृतमपि
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ देवताओं के मुकुट भगवान् के श्री चरणों में झुक गए हैं। भगवान् का यह दिव्य रूप मेरी आँखों में समा जाए। भगवन् ! इन आँखों से एक तुझे देखा, मैं धन्य-धन्य हो गया। और अधिक धन्यता तो यह है कि तुम मेरी आँखों में समाए हए रहो। अपलक तुम्हें देखता रहूँ। तब भी नयनों की प्यास बझने वाली नहीं है-अत: नयनपथगामी भवतु मे।
मैं देख रहा हूँ—मनुष्य भाग रहा है झुकने के लिए। उसकी दशा क्या है ? स्वार्थ से प्रेरित है, कामनाओं से उत्पीडित है। ईर्ष्या, घृणा, द्वेष से दग्ध है, देवताओं की प्रार्थना में झुके हुए हैं । झुके हुए हैं भय से और प्रलोभन से।
एक छोटे बालक से उसके शिक्षक ने पूछा कि 'बेटे तुम रात को सोते समय प्रार्थना करते हो?' उसने कहा—'बिलकुल ! रोज करता हूँ, नियम से करता हूँ।'
शिक्षक ने पूछा-'सुबह उठकर सुबह की प्रार्थना करते हो?' बालक ने कहा-'कभी नहीं करता।'
शिक्षक ने कहा—'यह मेरी समझ में कुछ नहीं आया। रात को जब तुम नियमित प्रार्थना करते हो तो सुबह की प्रार्थना क्यों नहीं करते?'
बालक ने कहा—'रात को मुझे डर लगता है, सुबह मुझे डर नहीं लगता।'
प्रार्थना क्या है ? मांग है, यह मिल जाए, वह मिल जाए। यह बाल-भाव से आई मांग है। देवताओं के चरणों में झुकते हैं क्यों? वे कुछ कर देंगे इसलिए। मस्तक झुका है पर अन्तर् हृदय का मेल नहीं हुआ उस नमस्कार से । अन्तर् का मेल तो कामना के साथ हुआ है, पार्थिव वस्तु के साथ हुआ है।
लोग आते हैं, प्रणाम करते हैं, झुक रहे हैं। शरीर झुक रहा है पर अहंकार खड़ा है। वह दिखाना चाह रहा है शरीर को झुकाकर कि यह है भक्ति, यह है पूजा, यह है समर्पण, यह है विनम्रता, यह है साधुता, यह है सरलता। प्रणाम में भी उसका नाम नहीं, किन्तु इच्छापूर्ति की रटन है।
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