________________
६ | महावीराष्टक-प्रवचन अमृतचंद्र ने इसी अर्हत् भाव की ज्ञान-ज्योति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा
तज्जयति परंज्योति, समं समस्तैरनन्तपर्यायैः ।
दर्पणतल इव सकला, प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।
आत्मा की ज्ञान-ज्योति के लिए दर्पण की उपमा एकदेशीय उपमा है। केवल इतना ही स्पष्ट करती है कि जैसे दर्पण-तल पर वस्तु झलक जाती है, इसी प्रकार केवल ज्ञान में भी झलक जाती है । दर्पण में वस्तु तत्त्व का झलकना सीमित रूप से होता है। किन्तु केवल ज्ञान-रूप असीम अनंत चैतन्य दर्पण में रूपी, अरूपी, चैतन्य और जड़ विषयक सभी पदार्थ झलकते हैं।
उपर्युक्त अनंत चित्-शक्ति अर्हद् भावापन्न अनंतज्ञानी तीर्थंकर भगवान् महावीर की महिमा का गान करते हुए कहते हैं
यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचित:,
समं भान्ति ध्रौव्य-व्यय-जनि-लसन्तोऽन्तरहिताः । जिसके चैतन्य में दर्पण के समान उत्पाद, व्यय और धौव्य स्वरूप से युक्त चित् और अचित् अनंत पदार्थ एक साथ प्रतिबिंबित होते हैं। उत्पाद आदि स्वरूपत्रयी से अनंत पर्यायों के साथ पदार्थों का यह झलकना होता है।
जैन-दर्शन में जड़-चेतन सभी पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप से युक्त होते हैं। प्रत्येक पदार्थ का पूर्व पर्याय नष्ट होता है। उत्तर पर्याय उत्पन्न होता है। फिर भी द्रव्य सत् रूप से ध्रुव अर्थात् अविनाशी रहता है। लेकिन लौकिक दृष्टि ये यदि उदाहरण से समझना चाहें तो उक्त भाव को इस प्रकार समझ सकते हैं—स्वर्णहार को तोड़ कर उसका कंगन बना दिया जाए तो स्वर्ण का हार रूप पर्याय विनष्ट हुआ है और कंगन पर्याय रूप उत्पन्न हुआ है, किन्तु स्वर्ण (द्रव्य) के रूप में स्वर्ण ज्यों का त्यों ध्रुव है। स्वर्ण का स्वर्णत्व न उत्पन्न हुआ है और न ही नष्ट हुआ है। यह एक लोक-दृष्टि का उदाहरण है। जैन-दर्शन की दृष्टि से उत्पाद आदि स्थिति प्रत्येक पदार्थ में क्षण-क्षण होती रहती है। सूक्ष्म तात्त्विक दृष्टि को स्वर्ण के स्थूल तत्त्व की उपमा देकर समझाने का यह एक साधारण प्रयत्न है। स्तुतिकार उपर्युक्त भाव को स्पष्ट करते हए कहते हैं
अनंत चैतन्य स्वरूप के धारक, समग्र लोकालोक के पदार्थ के ज्ञाता-द्रष्टा भगवान महावीर जगत् के साक्षी हैं। परम चैतन्य भाव को प्राप्त परमात्मा स्वरूप आत्माएं जगत् की कर्ता नहीं होतीं। मात्र साक्षी हैं। प्रस्तुत साक्षी रूप से बंधनमुक्ति का अबाधित सत्य मार्ग प्रकट करने वाले हैं। यह मार्ग है-साक्षी भाव अर्थात् वीतराग भाव।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org