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२ | महावीराष्टक-प्रवचन सत्य हो या न हो इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता हैं। उनके अंतर्हदय की भाव-भाषा ही सत्य है।
मात्र आठ श्लोकों की लघु रचना के प्रत्येक श्लोक के चतुर्थ चरण में भक्तहृदय भागचंद्र की दिव्य भावना का पुन:-पुन: संगान है-"महावीर-स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे।" यह पुनरुक्ति काव्य-दोष नहीं है । भक्त का एक उत्कट भाव है जो उसके हृदय-घट से छलक-छलक जा रहा है। भक्ति का पूर्ण रूप है-भक्त में भगवान का समा जाना, सिंधु का बिन्दु में अवतरित होना। उस अद्भुत, पूर्ण रूप की अभिव्यक्ति है यह पुनरुक्ति।
भक्ति की वेला में स्वर भक्ति से भर गए हैं। ऐसे में भक्तराज किन आँखों की बात कर रहे हैं? जगत् हमें जिन आँखों से देख रहा हैं और हम जगत् को जिन आँखों से देख रहे हैं, उन आँखों की चर्चा है क्या? भागचंद्र चतुरिंद्रिय एवं पंचेंद्रिय जीवों को प्राप्त शरीर की आँखों की बात क्या करेंगे? शरीर की ये आँखें प्रकृति के सूर्य को देखने में चौंधिया जाती हैं तो जो सूर्यातिशायी है, हजार-हजार सर्यों से भी अधिक जाज्वल्यमान है, उसे क्या देखेंगी? आँखें बहत बड़ी विशाल चीजों-समुद्र पर्वत आदि-जिन्हें नापा जा सकता हैं, उन्हें भी एक नजर में नहीं देख पातीं, तो असीम है विराट् है उसे कैसे देख पाएंगी? ये आँखें निद्रा में बंद होने पर कैसे देखेंगी? ये आँखें कितनी दूर तक का देख पाएंगी? बीच में दीवार आ जाए तो कम दूरी की वस्तु भी नहीं दिख पाती है तो क्षेत्रातीत को क्या देख पाएंगी?
आँख कौन-सी? असीम को, प्रकाशमान को सदा-सर्वदा अपलक देखने वाली हृदय की आँख, आँख है। भक्ति की आँख से, प्रभप्रीति की आँख से देखा जाता है परमात्मा को। समयातीत, क्षेत्रातीत, नामातीत, रूपातीत परमात्मा को देखें
और उसे समा लें अपने में; ऐसे दिव्य अन्तश्चक्षु, ऐसे विलक्षण अंतर नयन हैं भक्त के। भक्त अपने नयन-कमलों के सिंहासन पर विराजमान करता है भगवान
को।
प्रस्तुत रचना एक दिव्य माला है। भक्ति के अत्यधिक कोमल, नाजुक, सूक्ष्म भावों के सूत्र में भगवान् महावीर के जीवन-संदेश के सुरभित पुष्पं बड़ी सुंदर काव्यात्मक शैली से एवं चिंतनपूर्ण कुशलता से पिरोए गए हैं।
प्रथम श्लोक में है—भगवान् महावीर अनंत ज्ञानी हैं। उनके ज्ञान में लोकालोक के समग्र पदार्थ झलकते हैं। उनके लिए रहस्य जैसा कुछ नहीं है वे जगत् के मात्र साक्षी हैं। उन्होंने साक्षी भाव को मुक्ति का मार्ग बताया है।
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