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________________ सापेक्षता आदमी पूर्ण भी अपूर्ण भी ___एक भाई ने पूछा---पूर्ण कौन है ? मैंने उत्तर दिया—मैं हूं। फिर उसने पूछा—अपूर्ण कौन है ? मैंने कहा-वह भी मैं हूं । वह बड़ा असमंजस में पड़ गया। उसने कहा- दोनों कैसे? पूर्ण हैं तो अपूर्ण कैसे और अपूर्ण हैं तो पूर्ण कैसे? मुझे फिर उत्तर देना पड़ा । मैंने कहा-मैं भाषा के जगत् में जीता हूं, इसलिए दोनों हूं। मैं चिन्तन के जगत् में जीता हूं, इसलिए दोनों हूं। मैं स्मृति, कल्पना और बुद्धि के जगत् में जीता हूं, इसलिए दोनों हूं। ' भाषा के जगत् में जीने वाला कोई भी व्यक्ति केवल पूर्ण नहीं हो सकता और केवल अपूर्ण भी नहीं हो सकता। भाषा-जगत् से परे पूर्ण और अपूर्ण की कोई कल्पना भी नहीं है । यह हमारी भाषा की सापेक्षता है। हमने चिन्तन और भाषा के योग से बहुत सारी ऐसी कल्पनाएं कर ली जो भाषा को पार कर अभाषा के जगत् में जाने पर, शब्दों की सीमा को लांघकर अशब्द की सीमा में जाने पर खंडित हो जाती है। वहां केवल बचता है अस्तित्व । जो होता है वही बचता है, शेष सारी कल्पनाएं समाप्त हो जाती है। यदि यह एक सत्य समझ में आ जाए तो बहुत सारे दार्शनिक विवाद भी समाप्त हो जाएं । दार्शनिक उलझनें, दार्शनिक विवाद-ये सारे भाषा के जगत् मेंचलते हैं। सत्य भाषा से परे हैं। सत्य का और भाषा का कभी योग नहीं हो सकता, हो ही नहीं सकता। अनेकान्तदृष्टि में इस पर बहुत विशद् प्रकाश डाला गया है। हम जिसे सत्य मानते हैं, वह अनेकान्त की दृष्टि से सापेक्ष सत्य ही होगा। तो प्रश्न होता है कि क्या हमें सत्य को सत्य कहने का अधिकार नहीं है? हम जो भी कहें, क्या वह असत्य होगा? वह सत्य हो सकता है यदि तुम अपनी दुर्बलता को स्वीकार कर लो। यदि तुम अपनी असमर्थता या भाषा दुर्बलता स्वीकार कर लो तो वह सत्य हो सकता है । भाषा की अक्षमता यह है कि वह एक क्षण में, एक शब्द के द्वारा, किसी एक सत्य का ही प्रतिपादन कर सकती है, जबकि सत्य अनन्त होता है । वह एक शब्द के द्वारा कभी गृहीत नहीं होता। भाषा की दुर्बलता प्रत्येक तत्त्व में अनन्त धर्म होते हैं। एक परमाणु में भी अनन्त धर्म होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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