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________________ ६६ ६७ ६८ १३. १०. ज्ञान बहुमान कथा। काशी विषय, वाराणसी नगरी, वसुभद्र राजा, वसुमती रानी। समीप ही गंगा तट पर पलासखेडी ग्राम में अशोक गोपाल जी प्रतिवर्ष राजा को एक सहस्त्र घृत देता था उसकी स्त्री नन्दा बन्ध्या थी । दूसरी पत्नी सुनन्दा। नन्दा गौओं गोपालों की सब प्रकार से चिन्ता करती और खूब घृत इकट्ठा करती। १२. सुनन्दा अपने यौवन के उन्माद में बड़ी असावधान रहती। यथा समय राजा के भंडसाली घ्त वसूल करने आये । ज्येष्ठ भार्या ने अपने हिस्से के पांच सौ घड़े दे दिये, किन्तु सुनन्दा कुछ भी नहीं दे सकी । अतः पति ने मारकर उसे निकाल दिया। नन्दा ने उसके हिस्से के घड़े भी दिये, जिससे पति उस पर बहुत प्रसन्न हुआ। गुरुनिन्हव कथा । उज्जयिनी का राजा घृतिसेन । रानी मलयावती। पुत्र चन्द्रप्रद्योत । दक्षिण देश की वेण्णातट पुरी में प्रसिद्ध ब्राह्मण सोमशर्मा, पत्नी सोमिल्ला, पुत्र विद्वान् कालसंदीप समस्त शास्त्रों का पारगामी । वह पाकर चन्द्रप्रद्योत का गुरु बना । उसने उसे समस्त कलायें और विद्याएं पढ़ाई । किन्तु यह यवन देश की भाषा और लिपि किसी प्रकार भी न सीख सका। रुष्ट होकर राजपुत्र ने राजा होने पर उसका पैर कटवा डालने को प्रतिज्ञा की। १४. गुरु ने भविष्य का विचार कर कहा तेरे राज्य में मेरे पैर का पट्टबंधन (पूजन) होगा । राजपुत्र की शिक्षा पूरी कर कालसंदीप दक्षिण देश में जाकर मुनी हो गया। चंद्रप्रद्योत राजा हुअा यवन देश से उसे एक पत्र मिला। जिसे अन्य कोई न पढ़ सका । स्वयं उसे पढ़ा। गुरु की याद आयी और उनकी खोज कराई। वे कांचीपुर में मिले । १५. मंत्रियों ने कालसंदीप से कहा कि चंद्रप्रद्योत नरेश उनका किस प्रकार स्मरण कर रहा है। १६. वे कालसंदीप को मनाकर उज्जयिनी ले आये । राजा द्वारा सम्मान व चरण का पट्टवध । राजा की गौर संदीप नाम से मुनि-दीक्षा । दोनों का राजगृह आगमन । राजा श्रेणिक की गौर संदीप मुनि से भेंट व गुरु सम्बन्धी प्रश्न । १७. गौर संदीप ने अपने गुरु का नाम वीतराग महावीर बतलाया, कालसंदीप नहीं। इस प्रकार गुरु का नाम छिपाने से उसका शरीर काला और रोग-ग्रस्त हो गया। श्रेगिक के पूछने पर गौतम मुनि ने यह कारण बतलाया, श्रेणिक ने उस मुनि को भी इसकी सूचना दे दी। १८. व्यंजन हीन कथा । मगध मंडल, राजगह नगर, वीरसेन राजा, सिंह राजपुत्र । पोदनपुर के राजा सिंहरथ पर आक्रमण । विजय में विलम्ब । राजकुमार के शिक्षण की चिन्ता । १६. मूर्खता के दोषों का विचार कर राजा ने पत्र लिखवाया कि सिंह का अध्यापन कराग्रो (अध्यापय) । किन्तु इधर वाचक ने पढ़ा सिंह को अंधा करा दो (अंधापय) रानी ने पुत्र को छिपाकर रखा। पढ़ाया नहीं। राजा के लौटकर ... आने पर भेद खुला और उस दुष्ट वाचक को दंड दिया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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