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________________ प्रलयवर्णनम् फुडिअ-घण-वडल-पाअड-तडि-च्छडा-संड-णिविडिओ जलइ । रवि-बिंब-वलय-बद्ध-प्फलो व्व जलणो णह-अलंमि ॥ १७४॥ डज्झति सरल-सुंकार-दूर-विक्खित्त-सिहि-सिहा-णिवहा। तंडविअ-फणा-मंडल-पिंडिअ-धूमुग्गमा फणिणो ॥ १७५ ॥ उन्बहइ धूम-वलयं सेसो पछि-परिसंठिउम्मेअं। देह-प्पहा-विआणं हरिणो व्व णिवेस-संकंतं ॥ १७६ ॥ जलण-सिहा-संभाविअ-सरीर-णिव्वावणा-णिमित्तं व। डज्झइ ससि-मंडल-कलस-दिण्ण-कंठ-ग्गहं मअणो ॥ १७७॥ रक्खा-सुअंगमुग्गिण्ण-विस-जलासार-विरलिउभेओ। अहिलेइ णिहि-ठाणाइँ कहवि जलणो कुबेरस्स ॥ १७८ ॥ सोहइ वलंत-वासुइ-परिवेस-विढत्त-विअड-पडिबंधो । दर-सिढिल-हर-जडा-पुंज-पिंजरो सिहि-सिहा-णिवहो ।। १७९ ॥ पडिहाइ जलण-जाला-पंजर-संजमण-पुंजिआवयवो। उप्पत्ति-दिअस-परिसंठिओ व्व तणओ ति-णयणस्स ॥ १८०॥ स्फुटितघनपटलप्रकटतडिच्छटाषण्डनिबिडितो ज्वलति । रविबिम्बवलयबद्धफल इव ज्वलनो नभस्तले ॥ १७४॥ दह्यन्ते सरलसूत्कारदूरविक्षिप्तशिखिशिखानिवहाः। ताण्डवितफणामण्डलपिण्डितधूमोद्माः फणिनः ॥ १७५ ॥ उद्वहति धूमवलयं शेषः पृष्ठपरिसंस्थितोद्भवम् । देहप्रभावितानं हरेरिव निवेशसंक्रान्तम् ॥१७६ ॥ ज्वलनशिखासंभावितशरीरनिर्वापणानिमित्तमिव । दाते शशिमण्डलकलशदत्तकण्ठग्रह मदनः ॥१७७॥ रक्षाभुजंगमोद्गीर्णविषजलासारविरलितोद्भेदः । अभिलाति निधिस्थानानि कथमपि ज्वलनः कुबेरस्य ।। १७८॥ शोभते वलद्वासुकिपरिवेषार्जितविकटप्रतिबन्धः । ईषच्छिथिलहरजटापुञ्जपिचरः शिखिशिखानिवहः ॥१७९॥ प्रतिभाति ज्वलनज्वालापञ्जरसंयमनपुनितावयवः। उत्पत्तिदिवसपरिसंस्थित इव तनयस्त्रिनयनस्य ॥१८०॥ १७४. वडण° for "वडल. १७५. मंडव for मंडली. १७६. पट्टीपरिट्टिओम्भेयं. १७७. "ग्गहो. १७९. विरल and °वियड° for° सिढिल. १८०. °दियह for °दिअस. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001364
Book TitleGaudavaho
Original Sutra AuthorVakpatiraj
AuthorNarhari Govind Suru, P L Vaidya, A N Upadhye, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages638
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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