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स्याद्वादो वर्तते यस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किंचिद्, जैनधर्मः स उच्यते ।।
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अनेकान्त की दृष्टि जहाँ है,
और न पक्षपात का जाल । मैत्री - करुणा सब जीवों पर, जैन-धर्म है वह सुविशाल ।।
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