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________________ वाले हैं। राजपूताना आदि प्रदेशों में तो अजैन लोग जैनों को शपथ दिलाते समय भी भगवान पार्श्वनाथ की शपथ दिलाते हैं। भारतीय इतिहास के माने हुए विद्वान भी श्री पार्श्वनाथ जी की ऐतिहासिकता को स्पष्ट रुप में स्वीकार करते हैं। पहले के कुछ इतिहासज्ञ विद्वान जैनधर्म का प्रारम्भकाल भगवान महावीर से ही मानते थे, परन्तु अब तो एक स्वर से प्रायः सभी विद्वान् जैनधर्म का सम्बन्ध भगवान् पार्श्वनाथ से जोड़ने लग गये हैं, कुछ तो इनसे भी आगे ऋषभदेवजी तक पहुँच गये हैं। प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तक 'भारतीय इतिहास की रुपरेखा' में तो भगवान् पार्श्वनाथ के इतिहास-काल पर खूब अच्छा प्रकाश डाला गया है। तत्कालीन परिस्थिति भगवान् पार्श्वनाथ का समय ईसा के करीब आठ सौ वर्ष पूर्व है। सुप्रसिद्ध काशी राष्ट्र की राजधानी वाराणसी में भगवान पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। काशी नरेश अश्वसेन पार्श्वनाथ के पिता और वामादेवी माता थीं। वह युग तापसों का युग था। हजारों तापस आश्रम बनाकर वनों में रहा करते थे और उग्र शारीरिक क्लेशों द्वारा तपः साधना किये करते थे। कितने ही तपस्वी वृक्षों की शाखाओं में औंधे मुँह लटका करते थे। कितने ही आकंठ जल में खड़े होकर सूर्य की ओर ध्यान लगाया करते थे। कितने ही अपने आपको भूमि में दबाकर समाधि लगाते थे। और कितने ही पंचाग्नि-तप तपकर अपने शरीर को झुलसा डालते थे। उक्त अग्नि-तापसों का उस समय काफी जोर था। भोली जनता इन्हीं विवेकशून्य क्रिया काण्डों में धर्म मानती थीं और इस प्रकार देह दण्ड का बाजार खूब गरम था। विचार-क्रान्ति भगवान् पार्श्वनाथ का वैचारिक संघर्ष अधिकतर इन्हीं तापस सम्प्रदाओं के साथ हुआ। वे विवेक-शून्य क्रिया-काण्ड को हेय मानते थे और कहते थे कि "ज्ञानपूर्वक किया गया सम्यक-आचार ही जीवन भगवान पार्श्वनाथ (27) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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