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हूँ कि दुखियों की सेवा करने वाला ही धन्य है, श्रेष्ठ है, मेरी निजी सेवा करने वाला नहीं। मेरा निजी सेवक सिद्धान्त की अपेक्षा मोह में अधिक उलझा हुआ है।
यह भव्य आदर्श है-नर सेवा में नारायण-सेवा का, जन-सेवा में जिन-सेवा का। जैन-संस्कृति के अन्तिम प्रकाशमान सूर्य भगवान महावीर है, उनका यह प्रवचन सेवा के महत्व के लिए सबसे बड़ा ज्वलन्त प्रमाण है।
सेवा के महान् आदर्श
भगवान् महावीर दीक्षित होना चाहते हैं, तो अपनी सम्पत्ति को गरीब प्रजा के हित के लिए दान करते हैं, और एक वर्ष तक मुनि दीक्षा लेने के विचार को लम्बा कर देते हैं। एक वर्ष में अपार सम्पत्ति जन-सेवा के लिए अर्पित करना अपना प्रथम कर्तव्य समझते हैं। और मानव-जाति की आध्यात्मिक उन्नति करने से पहले उसकी भौतिक उन्नति करने में संलग्नं रहते हैं। दीक्षा लेने के पश्चात् भी उनके हृदय में दया का असीम पारावार तरंगित रहता है, फलस्वरुप वे एक गरीब ब्राह्मण के दुःख से दयार्द्र हो उठते हैं, और उसे अपना एकमात्र प्रावरण-वस्त्र भी दे डालते हैं।
- जैन सम्राट चन्द्रगुपत भी सेवा क्षेत्र में पीछे नहीं रहे हैं। उनके प्रजा-हित के कार्य सर्वतः सुप्रसिद्ध हैं। सम्राट सम्पत्ति की जनसेवा भी कुछ कम नहीं है। जैन इतिहास का साधारण-से-साधारण विद्यार्थी भी जान सकता है, कि सम्राट सम्पत्ति के हृदय में जन-सेवा की भावना किस प्रकार कूट-कूट कर भरी हुई थी, और किस प्रकार उन्होंने उसे कार्य-रुप में परिणति कर जैन-संस्कृति के गौरव को अक्षुण्ण रखा था। कलिंग-चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल और गुर्जरनरेश १ आवश्यक सूत्र, (हारीभद्रीय टीका) उत्तराध्ययन, (सर्वार्थसिद्धि टीका) परीषह अध्ययन ।
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For Private & Personal जन संस्कृति में सेवाभाव (189)..
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