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________________ लिए सदा आर्तों की, दीन दुखियों की, पतितों एवं दलित की सुधि लेता रहता है। __ स्थानांग सूत्र में भगवान महावीर की आठ महाशिक्षाएँ बड़ी प्रसिद्ध हैं, उनमें पांचवी शिक्षा यह है कि 'असंगहीयपरिजणस्य संगिण्हयाए अल्मुट्ठयव्वं भवई'। जो अनाश्रित है, निराधार है, कहीं भी जीवन-यापन के लिए उचित स्थान नहीं पा रहा है, उसे तुम आश्रय दो, सहारा दो, उसकी जीवन-यात्रा के लिए यथोचित प्रबन्ध करो। जैन-गृहस्थ का द्वार प्रत्येक असहाय के लिए खुला रहता है। वहाँ किसी भी जाति, कुल देश या धर्म के भेद-भाव के बिना मानव-मात्र के लिए एक समान आदर भाव है, आश्रम-स्थान है। एक बात और भी बड़े महत्व की है। इस बात ने तो सेवा का स्थान बहुत ही ऊँचा कर दिया है। जैन धर्म में सबसे बड़ा और ऊँचा पर तीर्थंकर होने का अर्थ यह है कि वह साधक समाज का पूजनीय महापुरूष देवाधिदेव बन जाता है। भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर दोनों तीर्थंकर थे। भगवान् महावीर ने अपने जीवन के अन्तिम प्रवचन में सेवा महत्व बताते हुए कहा है कि "वेयावच्चेण तित्थवर नामगोर्त्त कम्मं निबन्धई । ___ अर्थात् वैयावृत्यि करने से, सेवा करने से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। साधारण जन-समाज में सेवा की प्रतिष्ठा के लिए भगवान् महावीर का यह उदात्त प्रवचन कितना महनीय है। १ निशीथ सूत्र उद्देशक ४। २ उत्तराध्ययन, तपोमार्ग अध्ययन। ३ औपपातिक सूत्र, पीठिका। ४ स्थानंग सूत्र, ८, ६१। ५ भगवती सूत्र श० २, उ० ४। - Jain Education International For Private & Pe Vertorary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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