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________________ है। उन्होंने आध्यात्मिक क्रिया-काण्ड-प्रधान जैन- धर्म के बाद ही रखा है, पहले नहीं। एक सभ्य नागरिक एवं राष्ट्र-भक्त ही सच्चा जैन हो सकता है, दूसरा नहीं। उक्त विवेचन के विद्यमान रहते यह कैसे कहा जा सकता है कि-जैन-धर्म एकान्त निवृत्ति-प्रधान है अथवा उसका एकमात्र उद्देश्य परलोक ही है, इह लोक नहीं। जैन धर्म उE पार धर्म नहीं हैं, अपितु नकद धर्म है। वह इस लोक और परलोक-दोनों को ही शानदार बनाने की सत्प्रेरणा प्रदान करता है। समर्पण का संकल्प जैन गृहस्थ जब प्रातःकाल उठता है तो वह तीनों बातों का चिन्तन करता है। उनमें सबसे पहला यही संकल्प है कि मैं अपने धन का जन-समाज की सेवा के लिए कब त्याग करूँगा ? वह दिन धन्य होगा, जब मेरे संग्रह का उपयोग जन-समाज से लिए होगा, दीन-दुःखियों के लिए होगा। भगवान् महावीर का यह आघोष हमारी निद्रा भंग करने के लिए पर्याप्त है कि-'असविभागी न हु तस्स मुक्खो मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने संग्रह के उपभोग का अधिकारी अपने आप को ही न समझ, प्रत्युत, अपने आस-पास के साथियों को भी अपने बराबर का अधिकारी माने। जो मनुष्य अपने साधनों का स्वयं ही उपभोग करता है, उसमें से दूसरों की सेवा के लिए कुछ भी अर्पण नहीं करना चाहता, वह अपने बन्धनों को तोड़ कर कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। जैन धर्म में माने गये मूल आठ कर्मो में मोहनीय कर्म का स्थान बड़ा ही भयंकर है। आत्मा का जितना अधिक पतन मोहनीय कर्म के द्वारा होता है, उतना और किसी कर्म से नहीं। मोहनीय कर्म के सबसे १ स्थानांग सूत्र, दशमस्थान। २ स्थानांग सूत्र ३, ४, २१ ३ दशवैकालिक सूत्र ६, २, २३। - - - - Jain Education International For Private & Personal wamaw.jainerbrary.org भाव 14
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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