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की यह उपर्युक्त कसौटी खरी नहीं उतरती। क्योंकि कितनी ही बार-उक्त कसौटी के सर्वथा विपरीत परिणाम भी परिलक्षित होते हैं।
एक मनुष्य किसी को कष्ट देता है। जनता समझती है कि वह पाप कर्म बाँध रहा है, परन्तु बाँधता है भीतर में पुण्य-कर्म। और कभी कोई मनुष्य किसी को सुख देता है। ऊपर से वह पुण्य-कर्म बाँधने वाला लगता है, परन्तु बाँध रहा है अन्दर में पाप-कर्म।
इस गम्भीर भाव को समझने के लिए कल्पना कीजिए
एक डॉक्टर किसी फोड़े के रोगी का ऑपरेशन करता है। उस समय रोगी को कितना कष्ट होता है, वह कितना चिल्लाता है ? परन्तु डाक्टर यदि शुद्ध-भाव से चिकित्सा करता है, तो वह पुण्य बाँधता है, पाप नहीं। माता-पिता हित-शिक्षा के लिए अपनी सन्तान को ताड़ते हैं नियंत्रण में रखते हैं, तो क्या वे पाप बाँधते हैं ? नहीं, वे पुण्य बाँध आते हैं। इसके विपरीत एक मनुष्य ऐसा है जो दूसरों को ठगने के लिए मीठा बोलता है, सेवा करता है, भजन-पूजन भी करता है, तो क्या वह पुण्य बाँधता है ? नहीं, वह भयंकर पाप-कर्म का बंध करता है। अन्दर में जहर रखकर ऊपर के लोग दिखाऊ अमृत से कोई भी पुण्य-कर्म नहीं बाँध सकता।
अंतएव जैन-धर्म का कर्म-सिद्धांत कहता है कि पाप और पुण्य का बंध किसी भी वाह्य क्रिया पर आधारित नहीं है। बाह्य क्रियाओं की पृष्ठभूमि-स्वरूप अन्तःकरण में जो शुभाशुभ भावनाएँ हैं, वे ही पाप और पुण्य-बंध की खरी कसौटी है। क्योंकि जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसा ही शुभाशुभ कर्म-बंध होता है और तदनुरूप ही शुभाशुभ कर्मफल मिलता है। यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।' कर्मप्रवाह अनादि है
दार्शनिक क्षेत्र में यह प्रश्न चिरकाल से चल रहा है कि कर्म आदि है अथवा अनादि । आदि का अर्थ है- आदि वाला, जिसका एक
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जैन-दर्शन का कर्मवाद (157) For Private & Personal Use Only
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