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जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ
के सुहाग लुट गए। छल-कपट करके वैशाली जैसे महानगर को ध्वस्त कर डाला। कितना क्रूर और अन्यायपूर्ण रहा है मेरा जीवन ! पितृ - कुल और मातृ - कुल का विनाश करने वाली यह दहकती ज्वाला मैं ही तो हूं। क्या भावी इतिहास कार मुझे कुलांगार के रूप में चित्रित नहीं करेगा !'-क्षणभर कणिक की आंखें बंद रही, और विगत जीवन के हृदय-द्रावक दृश्य एक के बाद एक उसकी आँखों के सामने घूमते गए। उसे अपने आप पर भयंकर ग्लानि हो उठी, पश्चात्ताप से उसकी आँखें कुछ-कुछ गीली भी हो आई।
परन्तु, दूसरे हो क्षण उसने दृष्टि पीछे की ओर घुमाई। बड़े-बड़े सेनापति, वीर योद्धा और विशाल सेना उसके संकेत पर मर-मिटने को तैयार खड़ी थी । कणिक का क्षत्रिय - दर्प जाग उठा- 'मैंने यह सब कुछ किया, तो इसमें ऐसा क्या बुरा किया? यह तो मेरा क्षत्रिय-धर्म है। मुझे तो आगे बढ़ना है, विश्व-विजेता सम्राट बनना है।' सम्राट कूणिक के आँखों में पश्चात्ताप के आँसुओं की जगह विश्व-विजेता बनने के स्वप्न चमक उठे । उसने प्रभु से पूछा, "भन्ते ! छठे नरक में और कौन जाता है ?" भगवान् ने उत्तर दिया--चक्रवर्ती की भोगासक्त पटरानी छठे नरक में जाती है।'
यह सुना तो कूणिक ने एक और प्रश्न उपस्थित किया-''स्वयं चक्रवर्ती मरकर कहाँ जाता है ?"
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