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________________ ७० जैन इतिहास की प्रसिद्ध कथाएँ चला, कब वह महाराज को प्रणाम करके राजसभा से चला और अब अशोक - वाटिका में बैठे उसे कितना अधिक समय हो गया। अधिक समय क्या, अब तो काफी रात हो गई है। अंधेरे की काली चादर संसार पर छा गई है। ऊपर नील गगन में कुछ तारे झिलमिला रहे हैं। और, इधर सत्य के के प्रकाश का प्रतिनिधित्व करते हुए महामात्य अकेले ही चले जा रहे हैं, उसी सर्व - प्रथम उत्तर देने वाले सामन्त के भवन की ओर। 'आइए महामात्यवर ! कैसे कष्ट किया आपने !' सामन्त ने अभयकुमार को गहराती रात के अंधेरे में आया देखा, तो उसका मन आशंकाओं भर गया। स्वर्ण-दीवट पर रखे दीपक के टिमटिमाटेश में अभयकुमार के नेता पर उभरी हुई गम्भीर रेखाएँ साफ़ पढी जा सकती थीं । अभयकुमार हॉफ रहे थे। कुछ भय आर चिन्तामिश्रित भर्रायी आवाज किसी महान् संकट की सूचना दे रही थी। महामंत्री ने अपने को सँभालते हुए कहा--- "सामन्त ! मगधपति आकस्मिक भयंकर रोग के कारण मृत्यु - शय्या पर पड़े हैं । कोई उपचार, औषध नहीं लग रही है । वैद्यों का कहना है कि किसी स्वस्थ व्यक्ति के हृदय का मांस मिल सके, तो सम्राट् के प्राण बच सकेते हैं, अन्यथा नहीं। सिर्फ दो तोला हृयद का मांस चाहिए, औषध के लिए। इसके बदले में तुम्हें जितनी भी लक्ष या कोटि स्वर्ण - मुद्रा चाहिए सो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001345
Book TitleJain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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