SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'उदायन का पर्युषण' रहा था। वह पराक्रमी भी था। अपने प्रचण्ड बाहबल एवं सैन्यबल के कारण वह चन्द्रप्रद्योत से 'चन्डप्रद्योत' के नाम से विश्वविश्रत हो गया था। वह समय आने पर वीतभय के साथ ईट - से - ईंट बजाने का सामर्थ्य भी रखता था और साथ ही सौन्दर्य का प्यासा भी। कर्ण परंपरा से सने गए दासी के अद्भुत रूप लावण्य पर उनकी गीध-दृष्टि कुछ समय से थी ही और जब दासी की ओर से संकेत मिला तो वह बांसों उछल पड़ा। अनलगिरि नामक अजेय गन्धहस्ती पर चढ़कर रात्रि के समय वह वीतभय पत्तन में आया और स्वर्ण-गुलिका दासी एवं देव प्रतिमा को चुराकर भाग गया। न्याय और नीति की रक्षा का दावा रखने वाला अवन्ती सम्राट् पड़ोसी राजाओं की दासियों को चोर की तरह चुराता है- इस कायरतापूर्ण कलंक की परवाह उसके कामान्ध हृदय को कभी नहीं हुई। उदायन अपने दश सामन्त राजाओं के साथ विशाल सेना लेकर चन्द्रप्रद्योत को ललकारने के लिए चल पड़ा। ज्येष्ट मास की चिलचिलाती धूप की परवाह किये बिना सिन्धुसौवीर की विशाल सेना मालव-भूमि की ओर सागर की क्षब्ध-लहरों की तरह उमड़ चली। सेना मार्ग के बीच में आये मरु-प्रदेश को पार कर रही थी कि भयंकर गर्मी दूर-दूर तक फैले हुए रेत के टोले और जलाभाव के कारण वह व्या - कुल हो गई। लगातार तीन दिन तक जलाभाव का कष्ट बढ़ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001345
Book TitleJain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy