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विना विचारे जो करे
श्रमण भगवान महावीर की धर्म देशना श्रवण कर सम्राट श्रेणिक और महारानी चेलना राजमहल को लौट रहे थे। नदी के तट पर कड़ाके कि सर्दी में एक तपस्वी मुनि को ध्यान मुद्रा में खड़े देखा, तो महाराज और महारानी ने श्रद्धा प्रधान भाव से नमस्कार किया। सर्द हवा के झोंके कलेजा चीर रहे थे, हाथ-पाँव ठिठुरे जा रहे थे । बहुमूल्य ऊनी वस्त्रों में लिपटी हुई भी रानी की देह मालती लता की तरह थर-थर काँप रही थी । और, इस भयंकर सर्दी में भी वह नग्नदेह तपस्वी मुनि शैल-शिखर की तरह ध्यान में अचल खड़ा था। तपस्वी को धन-धन करते हुए रानी चेलना का रथ महलों की ओर बढ़ गया। रानी के स्मृति-पट पर शीत से जूझते हुए तपस्वी का वह भव्य साधना-चित्र बार-बार उभर आता और वह भावविह्वल होकर प्रणाम - मुद्रा में सहसा धन्य • धन्य कह उठती।
पौष महीने की भयानक शीत रात्रि में रानी चेलना उपरा उपरी अनेक कम्बलों से शरीर को सब तरह से ढंके हुए शयन-कक्ष में सो रही थी। नींद में उसका एक हाथ कम्बल से बाहर खुला हो गया। कुछ देर बाद रानी की नोंद खुली तो देखा कि ठंड के कारण हाथ अकड़ गया है। रानी सीत्कार कर उठी-"अहो ! कितनी भयंकर सर्दी है !" और,
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