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अमृत जीता, विष हारा
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में
सामने अपनी यह दुर्दशा देख रहा है, तुझे इस पर शर्म आनी चाहिए । कुछ दिखा, अपना चमत्कार !" अर्जुन - भावावेश हृदय की कसकती पीड़ा को अन्तर्जल्प के रूप में देवता के सामने खोलता चला गया। हृदय की गहराई से निक्ली भाव धारा में बल होता है, श्रद्धा में शक्ति होती है ।
अर्जुन के हृदय में अपमान का दंश था। मन में तीव्र वेदना थी । मुद्गरपाणि यक्ष ने सचमुच उसकी पुकार सुनी। वह उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया। एक ही झटके के साथ उसके बन्धन चूर-चूर होकर बिखर गए। अब अर्जुन माली के हाथ में यक्ष का वह लौह मुद्गर भीम के गदा की तरह लहरा उठी और पलक झपकते ही वे छहों दुष्टं युवक एवं सातवीं दुराचारिणी बन्धुमती - सातों ही व्यक्ति, मुद्गर के भयंकर प्रहार से वहीं पर ढेर हो गए ।
सातों प्राणियो की हत्या करके भी यक्षाविष्ट अर्जुन का क्रोध शान्त नहीं हुआ । क्रोधावेश में वह विक्षिप्त की तरह इधर उधर भटकने लगा । इस तरह जो भी उसके सामने आया, बस, एक ही प्रहार में धराशायी हो गया ।
इस घटना से उसके मन में इतना भयंकर क्रोध और घृणा जगी कि वह प्रतिदिन छह पुरुष एवं एक स्त्री की हत्या करके ही विश्रान्ति लेता ।
हरा-भरा पुष्पोद्यान अब श्मशान घाट बन गया। शहर में आतंक छा गया। मौत के मुंह में कौन जाए ? लोगों का
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