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समाज और संस्कृति
ने आज पहली बार यह अनुभव किया, कि धन के साथी संसार में बहुत हैं, किन्तु धन के अभाव में इस संसार में कोई भी किसी का नहीं है ।
सम्पत्ति और विपत्ति जीवन की दो स्थिति हैं । इन दोनों में क्या अन्तर है ? बहुत कुछ, और कुछ भी नहीं । आत्म-साधक के लिए सम्पत्ति और विपत्ति में कुछ भी भेद नहीं है, किन्तु संसार में आसक्त व्यक्ति के लिए सम्पत्ति और विपत्ति में बहुत बड़ा अन्तर है । एक कवि ने सम्पत्ति और विपत्ति की बड़ी सुन्दर परिभाषा की है । कवि कहता है, कि सम्पत्ति क्या है—“सम्पत्ति में कांय-काय, विपत्ति में भांय-भाय ।" आगे कवि कहता है—“काय-काय, भांय-भांय देखी सब दुनिया ।" कवि के कहने का अभिप्राय यह है, कि जब किसी मनुष्य के पास सम्पत्ति रहती है, तब उसे खाने वाले बहुत से इकट्ठे हो जाते हैं और चारों
ओर भीड़ का कोलाहल होता रहता है । और जब उसी व्यक्ति पर विपत्ति आ जाती है, तो सब भांय-भांय हो जाते हैं, अर्थात् दूर भाग जाते हैं । सब ओर सूना-सूना हो जाता है । सम्पत्ति में खाने के लिए सब एकत्रित हो जाते हैं और विपत्ति में कुछ देना न पड़ जाए, इस भय से दूर भाग जाते हैं । बस, इतना ही अन्तर है सम्पत्ति और विपत्ति में ।
मैं आपसे सेठ के पुत्र की बात कह रहा था । जब उसके पास सम्पत्ति थी, तब खाने वालों की भीड़ उसके पास एकत्रित हो गई थी, और जब विपत्ति ने उसके जीवन में प्रवेश किया, तब सब दूर भाग गये । एक दिन ऐसा भी आया, कि सेठ के पुत्र को खाने के लिए कुछ भी न मिल सका । किसी तरह एक दिन तो व्यतीत हो गया, किन्तु दूसरे दिन तो भूख ने विकराल रूप धारण कर लिया, घर में कुछ न था, यह सत्य है, किन्तु घर के बाहर भी उसके लिए कुछ न था । जिसके लिए घर में कुछ नहीं होता है, उसे बाहर में भी कुछ नहीं मिल सकता । सेठ के पुत्र के जीवन में जहाँ पहले सर्वत्र सद्भाव था, आज वहाँ सर्वत्र अभाव ही अभाव दृष्टिगोचर होता है । सेठ के पुत्र ने विचार किया, कि इस घर में पड़े-पड़े समस्या का हल नहीं है । किसी से कुछ माँगू, यह भी मेरे कुल और वंश के लिए उचित नहीं है । अब पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए मजदूरी करने के सिवाय और दूसरा कोई चारा मेरे पास नहीं है । किन्तु दूसरे ही क्षण उसके मन में विचार उठता है, कि इस नगर में मजदूरी करना भी आसान नहीं है । कुल
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