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________________ विकल्प से विमुक्ति है, उस पथ का सम्यक् परिबोध होता है । यह तभी सम्भव है, जबकि साधक को सत्य-दृष्टि की उपलब्धि हो जाये । सत्य-दृष्टि के अभाव में समग्र साधना अर्थहीन होती है । यह कितनी अजीब बात है, कि हम साधना तो करें, किन्तु साधना के लक्ष्य का न हमें परिबोध हो और न उस पर हमारा अटल विश्वास हो । याद रखिए, आपको जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से पाना है । बाहर से कुछ भी नहीं है, और बाहर में यदि कुछ है, तो वह अपना नहीं है । आत्मा का लक्ष्य एक मात्र आत्मा ही है । आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ का अणुमात्र भी अपना नहीं हो सकता । मुझे आशा है, कि आप मेरी बात समझ गये होंगे, कि आत्मा का लक्ष्य क्या है ? आत्मा का लक्ष्य आत्मा के बाहर तो होगा नहीं, आत्मा का लक्ष्य न स्वर्ग का सुख है और न इस लोक का भौतिक सुख ही है । आत्मा का एकमात्र लक्ष्य, आत्म-विशुद्धि ही हो सकता है । जैन - दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्ष्य मिथ्यात्व आदि. विकल्पों से विमुक्त होना ही हो सकता है । स्वर्ग के सुख और इस लोक के सुख तुच्छ हैं, सहज अध्यात्म सुख के समक्ष वे हीन कोटि के हैं । याद रखिए, सुख-दुःख का खेल इसी जन्म और इसी जीवन का नहीं है, बल्कि अनन्त जन्म और अनन्त जीवन का यह आदि-हीन खेल है । प्रत्येक आत्मा इस संसार के रंगमंच पर आकर सुख - दुःख के खेल खेलता है । कभी वह दुःख का पार्ट अदा करता है और कभी सुख का पार्ट अदा करता है । जीवन में न जाने कितनी बार उसे सुख - दुःख के झूले पर झूलना पड़ा है । यहाँ तक कि यदि किसी को चक्रवर्ती का ऐश्वर्य और इन्द्र की विभूति भी उपलब्ध हो जाए, फिर भी उसकी अपनी अन्तरात्मा को उससे क्या मिलेगा ? यह जड़ - जगत का खेल जड़ जगत में ही समाप्त हो जाता है । जल-बुद्बुद् जल में जन्मा और जल में ही विलीन हो गया । यही स्थिति संसार के सभी भौतिक पदार्थों की है । इसी आधार पर मैं आपसे यह कह रहा था कि संसार का भौतिक सुख आत्मा का अपना स्वरूप नहीं है और जो कुछ आत्मा का अपना स्वरूप नहीं है, वह आत्मा का साध्य एवं लक्ष्य भी नहीं बन सकता 1 आत्म-विशुद्धि ही आत्मा का अपना लक्ष्य है । वह विशुद्धि क्या है ? मिथ्यात्व आदि विकल्पों का टूट जाना, नष्ट हो जाना अथवा क्षीण हो जाना । एक मिथ्यात्व के विकल्प के दूर होते ही, हजारों-हजार विकल्प अपने आप ही दूर हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only ५६ www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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