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________________ विकल्प से विमुक्ति मिटाने का प्रयत्न करें । जीवन की चादर में जो सफेदी है, वह गुण है और जो कालापन है, वह दोष है । जीवन के जितने दोष हैं, उन सबमें सबसे भयंकर दोष है — मिथ्यात्व का और नास्तिकता का । साधक को अन्य दोषों की अपेक्षा अपने सबसे प्रबल और सबसे भयंकर दोष मिथ्यात्व से ही संघर्ष करना है क्योंकि अन्य समग्र दोषों की जन्म भूमि भी यही है । मिथ्यात्व को जब तक दूर नहीं किया जाएगा, तब तक आत्मा में एक भी सद्गुण पनप नहीं सकेमा । प्रश्न यह है, कि मिथ्यात्व क्या है ? और उसका स्वरूप क्या है ? उत्तर में अध्यात्म-शास्त्र का कथन है, कि अपने आप पर विश्वास न करना ही सबसे भयंकर मिथ्यात्व है । कितनी विचित्र बात है, कि दुनिया का इंसान दुनियाँ की हर चीज पर तो विश्वास कर लेता है, किन्तु अपनी आत्मा पर वह विश्वास नहीं कर पाता । वह अपने धन पर विश्वास कर सकता है, वह अपने परिजन पर विश्वास कर सकता है और वह अपने इस भौतिक तन पर भी विश्वास कर सकता है, किन्तु अपनी अमर आत्मा पर उसका विश्वास नहीं होता । सबसे बड़ा मिथ्यात्व है और यही सबसे बड़ी नास्तिकता है । भौतिकता से हट कर जब तक आध्यात्मिकता पर श्रद्धा नहीं जमेगी, तब तक जीवन - कल्याण नहीं हो सकेगा । मिथ्यात्व का अर्थ यह है, कि साधक की दृष्टि सत्य पर जम नहीं पाती है और वह अपने लक्ष्य को स्थिर कर नहीं पाता है । वह कभी - कभी ऐसी गलत भूमिका पर पहुँच जाता है, जो उसके जीवन का लक्ष्य नहीं होती और जो उसके जीवन का साधन नहीं होती, किन्तु भ्रान्ति से उसे लक्ष्य और साधन समझ लेना और असाध्य को साध्य समझ लेना, यह भी मिथ्यात्व का एक रूप है । जो धर्म है उसे अधर्म समझ लेना और अधर्म को धर्म समझ लेना, यह भी मिथ्यात्व का एक प्रकार है । जो देव है, उसे देव न समझना और अदेव में देव बुद्धि कर लेना, यह भी मिथ्यात्व का एक भेद है । इस प्रकार मिथ्यात्व का एक विकल्प नहीं है, हजारों, लाखों और करोड़ों, यहाँ तक कि असंख्य विकल्प हो सकते हैं । जब तक यह मिथ्यात्व का विकल्प नहीं टूटेगा, तब तक हमारी साधना का कुछ भी सार निकल नहीं सकेगा । उन सभी को साधक मत समझो, जो आज साधक का बाना पहन कर साधना के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं । 'जो स्थानक या मन्दिर आदि में जाते हैं और वहाँ जाकर अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार धर्म क्रिया करते हैं, वे सभी भक्त नहीं हो सकते । बाइबिल में भी इस सम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only ५७ www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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