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________________ समाज और संस्कृति भगवान् महावीर ने सान्त्वना के स्वर में कहा - " राजन ! इतने विह्वल क्यों बनते हो । जो कृत कर्म सघन एवं सचिक्कण हैं, उनसे तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती, जब तक कि उसके फल को भोग न लिया जाए । जिस कर्म को तुमने बाँधा है, उसका फल भी तुम्हें ही भोगना होगा । सुख और दुःख का निबद्ध भोग अवश्य ही भोगना पड़ता है 1 कितने भाग्यशाली हो तुम, कि सात नरकों के बन्धन में से केवल एक ही नरक का बन्धन शेष रह गया है । निश्चय ही दुःख के महासागर को पार करते-करते तुम उसके किनारे पर अटक गये हो । चिन्ता मत करो, यह बन्धन भी तुम्हारा शेष नहीं रहेगा, परन्तु यह कर्म अपना फल दिए बिना दूर न हो सकेगा ।" भगवान् की इस बात को सुनकर विनम्रभाव से श्रेणिक बोला- “भगवन् ! मेरा उद्धार तो आपको करना ही होगा । आपका भक्त होकर मैं नरक में जाऊँ, यह कैसे हो सकता है ?" जिस प्रकार माता - पिता के सामने बालक, जब हट पकड़ लेता है, तब उसे समझाने के सारे प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं । यही स्थिति राजा श्रेणिक की थी । वह हठ पकड़ कर बैठ गया । भगवान् ने उसके आग्रह को देखकर परिबोध की दृष्टि से नरक के बन्धन से बचने के लिए चार बातें बतलाईं – “अपनी दासी कपिला से दान करवाना, अपने राज्य में रहने वाले काल शौकरिक कसाई से एक दिन की हिंसा बन्द करवा देना, एक नवकारसी तप करना और राजगृह में रहने वाले प्रसिद्ध श्रावक पूनिया की एक सामायिक खरीद लेना ।” पहली तीन बातें राजा ठीक तरह पूरी न कर सका था, फिर भी उसने चौथी बात पूरी करने का निश्चय किया । राजा श्रेणिक ने अपने मन में सोचा, “पूनिया श्रावक मेरे राज्य का व्यक्ति है, मेरी प्रजा है । वैसे भी उसके साथ मेरा काफी परिचय है । मैंने सुना है, कि वह प्रतिदिन सामायिक करता है, अस्तु, उसके पास सामायिक काफी संख्या में जमा हैं । एक दिन की सामायिक दे देना, उसके लिए कौन बड़ी बात है; जितना भी धन वह चाहेगा, उतना ही देकर में एक सामायिक अवश्य खरीद लूँगा ।” एक दिन राजा श्रेणिक स्वयं पूनिया श्रावक के घर पहुँचा और देखा, कि पूनिया श्रावक अपनी सामायिक की साधना में लीन है । पूनिया श्रावक जब सामायिक की साधना से निवृत्त हुआ, तब उसने देखा कि मगध सम्राट् श्रेणिक उसके घर पर आए हुए हैं । पूनिया श्रावक ने श्रेणिक का अभिवादन किया और बड़े आदर के साथ आसन पर बैठाया, ४२ י Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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