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________________ अध्यात्म-साधना मानता, जिसमें मन का योग तो न हो, केवल तन से ही जिसे किया जा रहा हो । जैन दर्शन में उस साधना के लिए जरा भी अवकाश नहीं है, . जिसमें मन का समरसी भाव न हो और जिसमें बुद्धि का समत्व-योग प्रस्फुटित होकर जीवन के धरातल पर न छलक आया हो । जिस साधना का लक्ष्य अध्यात्मभाव नहीं होता है, वह साधना अधिक स्थायी एवं स्थिर नहीं रह पाती है । जो व्यक्ति अपनी अध्यात्म-साधना के बदले में थोड़ा-बहुत यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करके ही सन्तुष्ट हो जाता है, उस व्यक्ति को विवेकशील नहीं कहा जा सकता । इसका अर्थ तो यह होता है, कि साधक अपनी अमूल्य साधना को कौड़ियों के मूल्य में बेच डालता है । कल्पना कीजिए, यदि किसी व्यक्ति को कहीं पर बहुमूल्य चिन्तामणि रत्न मिल जाए, किन्तु दुर्भाग्य से वह उसके महत्त्व को एवं . मूल्य को नहीं समझ पाए । जिस व्यक्ति ने चिन्तामणि रत्न के महत्व को नहीं समझा है और उसके मूल्य का उचित अंकन नहीं किया है, वह व्यक्ति बाजार में जाकर यदि चिन्तामणि रत्न को देकर उसके बदले में गाजर-मूली अथवा अन्य सड़ी-गली तुच्छ वस्तु को ले लेता है, और उससे अपनी भूख को शान्त करता है, तो यह एक बहुत बड़ी नासमझी का काम है । कहाँ गाजर मूली जैसी तुच्छ वस्तु और कहाँ महामूल्यवान् चिन्तामणि रत्न ! जो व्यक्ति चिन्तामणि रत्न देकर बदले में तुच्छ वस्तु खरीदता है, आप उस व्यक्ति को मूर्ख एवं नासमझ कहते हैं । क्योंकि आपकी समझ में उसने यह समझ का काम नहीं किया है । उस व्यक्ति के इस कार्य को आप मूर्खता-पूर्ण, अज्ञान-पूर्ण और नासमझी का काम कहते हैं । इस प्रकार के व्यक्ति की जीवन-गाथा को सुनकर आप उसकी हँसी और मजाक भी करते हैं, क्योंकि आपकी दृष्टि में एक बहुमूल्य वस्तु देकर एक तुच्छ वस्तु स्वीकार करना, उचित नहीं लगता । परन्तु जरा सोच-विचार कर तो देखिए, कि क्या आप और हम भी इसी प्रकार की भूल नहीं करते हैं ? शास्त्रकारों ने बताया है, कि जो साधक अपनी अध्यात्म साधना के बदले में संसार के सुख चाहता है, अथवा स्वर्ग-सुख की अभिलाषा करता है, या अन्य किसी भी प्रकार के सांसारिक सुख की कामना करता है, तो उसका यह कार्य भी उसी अज्ञान व्यक्ति के समान है, जिसने अपनी अज्ञानतावश चिन्तामणि रत्न देकर उसके बदले में गाजर-मूली जैसी तुच्छ वस्तुओं को खरीद लिया है । अध्यात्म सुख के समक्ष यह मनुष्य के सुख और ये देव के सुख तुच्छ एवं हीन हैं । हमारी अध्यात्म साधना का लक्ष्य और ध्येय न यश है, न प्रतिष्ठा है और न भौतिक भोगों का सुख - ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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