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________________ समाज और संस्कृति है, कि तू, अपने आपमें परिपूर्ण है । तू, अपने आपमें महान् है और तू अनन्त काल से है और अनन्त काल तक रहेगा । तू स्वयं ही अपना हित कर सकता है और तू स्वयं ही अपना अहित कर सकता है । दूसरा कोई न तेरा कल्याण कर सकता है और न तेरा अकल्याण ही कर सकता । अपना उत्थान और पतन तेरे अपने हाथ में है । क्योंकि एक आत्मा की चीज दूसरी में जा नहीं सकती । उसकी चीज किसी दूसरी के अन्दर डाली नहीं जा सकती । द्रव्यानुयोग का सिद्धान्त हमें बतलाता है, कि विश्व की प्रत्येक आत्मा अनन्त शक्ति - सम्पन्न है, जब प्रत्येक आत्मा में अपनी अनन्त शक्ति विद्यमान है, तब दीन-हीन बनकर दूसरे के सम्मुख हाथ पसारने से क्या लाभ ? जब तक कर्म का आवरण है, तब तक यह आत्मा अपने आपको पापी, दीन एवं हीन समझता रहता है, परन्तु कर्म का आवरण दूर होते ही, इस आत्मा की हीनता और दीनता उसी प्रकार विलुप्त हो जाती है, जिस प्रकार रात्रि में धरती और आकाश पर सर्वत्र फैला घोर अन्धकार, सूर्योदय होने पर विलुप्त हो जाता है । निश्चय - दृष्टि के अनुसार, पापी से पापी आत्मा में भी अपार शक्ति और अपार सौन्दर्य भरा पड़ा है । किन्तु उस अनन्त सौन्दर्य और अनन्त शक्ति का साक्षात्कार तभी हो सकता है, जबकि कर्म का आवरण दूर हो जाए । कर्म के आवरण को दूर करने के लिए आत्मा को अपनी निज शक्ति का ही प्रयोग करना पड़ेगा । आत्मा से भिन्न अन्य कोई भी पदार्थ आत्मा को न बन्धन में डाल सकता है और न उसे बन्धन-विमुक्त ही कर सकता है । आत्म-स्वरूप में रमण करने वाला मस्त साधक अपनी मस्ती में इस दिव्य गीत को अपनी मधुर स्वर लहरी में गाता रहता है— - सखे ! मेरे बन्धन मत खोल, स्वयं बँधा हूँ स्वयं खुलूँगा, तू न बीच में बोल । इस गीत में कवि ने भारत के सम्पूर्ण अध्यात्मवादी दर्शन को बन्द करके रख छोड़ा है । कवि कहता है— मैं आप ही स्वयं बँधने वाला हूँ और मैं आप ही स्वयं खुलने वाला हूँ । जब मुझे किसी ने बाँधा नहीं है, तब मुझे दूसरा कौन खोल सकता है ? इस दृष्टि बिन्दु पर आकर जैन- दर्शन और वेदान्त दर्शन एक मोर्चे पर समवेत स्वर से यह उद्घोषणा करते हैं, कि यह बन्धन, सदाकाल बन्धन नहीं रह सकता, इसे तोड़ा जा २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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