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________________ समाज और संस्कृति और वैर प्रकट करता है । और सुख के लिए भी दूसरों के आगे भिक्षा-पात्र लिए घूमता है और समझता है कि मैं अपना उद्धार स्वयं नहीं कर सकता । कोई दूसरा ही मुझे सुख दे तो मैं सुखी हो सकता हूँ । कर्मवाद इस भावना के विपरीत है, वह प्रेरणा देता है कि मनुष्य स्वयं ही सुख-दुःख का केन्द्र है । कर्मवाद जैन-दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त एक बार मुझे एक विदेशी विद्वान मिले । उनके साथ धर्म, दर्शन और संस्कृति के सम्बन्ध में बड़ी लम्बी चर्चा चलती रही । मैंने उन्हें जैन-धर्म और जैन-दर्शन का स्वरूप बतलाने का प्रयत्न किया । बीच-बीच में वह अपना तर्क भी प्रस्तुत करते जाते थे । अन्त में उन्होंने कहा, कि "जैन-धर्म की अपनी क्या विशेषता है ? अहिंसा की बात, तो वह और जगह भी है । सत्य की बात, तो यह और जगह भी है । आत्मा की बात, यह भी और जगह है । आत्मा, अहिंसा और सत्य—इन तीन बातों को प्रायः सभी आस्तिक दर्शन मानते हैं । उनकी परिभाषा और व्याख्या में अन्तर हो सकता है, किन्तुं उनकी सत्ता सभी को स्वीकार है, तब जैन-दर्शन की अपनी क्या स्वतन्त्र विशेषता रही ?" मैंने उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा-"कि संसार में नयी बात तो कुछ भी नहीं है और जब नयी बात नहीं है, तब आप अपने देश को छोड़ कर इस विदेश में क्या देखने और क्या करने आये हैं ? जब संसार में कोई नयी वस्तु नहीं है, तब आप भारत में क्या नया पा सकेंगे ? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है ।" मेरी बात को सुनकर वह चुप हो गया और कुछ क्षण मौन रहकर बोला-"बात आपकी ठीक है, संसार में नया तो कुछ नहीं है, किन्तु अपने-अपने सिद्धान्त की प्रतिपादन-शैली सबकी भिन्न है और इसी को नया कहा जाता है ।" मैंने बात का सूत्र पकड़ते हुए कहा-"तब तो जैन-दर्शन के पास भी नया बहुत कुछ है । उसकी अहिंसा भी नयी है, उसका सत्य भी नया है और उसकी आत्मा भी नयी है । क्योंकि उसके अपने सिद्धान्तों की प्रतिपादन-शैली, विश्व के प्रत्येक दर्शन से भिन्न और विलक्षण है और यही उसकी अपनी विशेषता है ।" वह हँसकर बोला- "आपने अपने तर्क से मुझे खूब पकड़ा है, आपके इस तर्क का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है", फिर भी मैं आपसे जिज्ञासा-वश यह पूछना चाहता हूँ, कि "जैन-दर्शन का अपना विशिष्ट सिद्धान्त कौन-सा है ?" मैंने कहा-"जैन-दर्शन का अपना विशिष्ट सिद्धान्त है, कर्मवाद । कर्मवाद २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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