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समाज और संस्कृति
बहने वाली धारा वैदिक संस्कृति है । पिटक मार्ग से बहने वाली धारा बौद्ध संस्कृति है । आगम मार्ग से बहने वाली धारा जैन संस्कृति है । भारत की संस्कृति मूल में एक होकर भी वेद, जिन और बुद्ध रूप में वह त्रि-धाराओं में प्रवाहित है । वेद दान का, बुद्ध दया का और जिन दमन का प्रतीक है । अपने मनोविकारों को दमित करने वाला विजेता ही जिन होता है और जिन देव की संस्कृति ही वस्तुतः विजेता की संस्कृति
___मैं आपसे भारतीय संस्कृति के स्वरूप और उसकी सीमा के सम्बन्ध में विचार कर रहा था । भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए और उसकी सम्पूर्ण सीमा का अंकन करने के लिए, उसे दो भागों में विभक्त करना होगा- ब्राह्मण की संस्कृति और श्रमण की संस्कृति । ब्राह्मण और श्रमण ने युग-युग से भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया है और किसी-न-किसी रूप में वह आज भी करता है । ब्राह्मण विस्तार का प्रतीक है और श्रमण शम, श्रम और सम का प्रतीक माना जाता है । जो अपना विस्तार करता है, वह ब्राह्मण है और जो शान्ति, तपस्या तथा समत्वयोग का साधक है, वह श्रमण है । श्रम और साधना दोनों का एक ही अर्थ है । प्रत्येक साधना श्रम है और प्रत्येक श्रम साधना है यदि उसमें मन का पवित्र रस उँडेल दिया गया हो तो । ब्राह्मण-संस्कृति विस्तारवादी संस्कृति है, वह सर्वत्र फैल जाना चाहती है, जब कि श्रमण-संस्कृति अपने को सीमित करती है एवं संयमित करती है । जहाँ विस्तार है, वहाँ भोग है । जहाँ सीमा है, वहाँ त्याग है । इसका अर्थ यह है कि ब्राह्मण-संस्कृति भोग पर आधारित है और श्रमण-संस्कृति त्याग पर । मेरे विचार में भारतीय समाज को यथोचित भोग और यथोचित त्याग दोनों की आवश्यकता है । क्योंकि शरीर के लिए भोग की आवश्यकता है और आत्मा के लिए त्याग की । भोग
और योग का यथार्थ विकास-मूलक संतुलन एवं सामञ्जस्य ही भारतीय संस्कृति का मूल रूप है । भारत के ब्राह्मण ने ऊँचे स्वर में शरीर की आवश्यकताओं पर अधिक बल दिया, तो भारत के श्रमण ने आत्मा की आवश्यकताओं पर अधिक बल दिया । मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि ब्राह्मण-संस्कृति प्रवृत्तिवादी है और श्रमण-संस्कृति निवृत्तिवादी है । प्रवृत्ति और निवृत्ति मानवी जीवन के दो समान पक्ष हैं । जब तक साधक, साधक-अवस्था में है, तब तक उसे शुभ प्रवृत्ति की आवश्यकता
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