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________________ अहिंसा और अनेकान्त - समन्तभद्र ने अपने-अपने युग में जिस अनेकान्तवाद के आधार पर विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों का समन्वय किया था, आश्चर्य है, उसी परम्परा के अनुयायी अपना समाधान नहीं कर सके । इससे अधिक उपहास्यता और विडम्बना अनेकान्त की अन्य क्या होगी ? श्वेताम्बरों का दावा है, कि समग्र सत्य हमारे पास है और दिगम्बरों का दावा है, कि समस्त तथ्य हमारे पास है । परन्तु मैं इसे एकान्तवाद कहता हूँ । एकान्तवाद, फिर भले ही वह अपना हो, या पराया हो, वह कभी अनेकान्त नहीं बन सकता । सम्प्रदायवाद और पंथवाद का पोषण करने वाले व्यक्ति जब अनेकान्त की चर्चा करते हैं, तब मुझे बड़ी हँसी आती है। मैं सोचा करता हूँ, कि इन लोगों का अनेकान्तवाद केवल पोथी के पन्नों का अनेकान्तवाद है, वह जीवन का जीवन्त अनेकान्त नहीं है । आज हमें उस अहिंसा और उस अनेकान्तवाद की आवश्यकता नहीं है, जो जीवन का जीवन्त अनेकान्त नहीं है । आज हमें उस अहिंसा और उस अनेकान्त की आवश्यकता है, जो हमारे जीवन के कालुष्य और मालिन्य को दूर करके, हमारे जीवन को उज्ज्वल और पवित्र बना सके, तथा जो हमारे इस वर्तमान जीवन को सरस, सुन्दर और मधुर बना सके, एवं समन्वय की भावना हमें अर्पित कर सके । –स्याद्वाद विद्यालय, काशी ५-२-१६६१ - - २१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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