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________________ अहिंसा और अनेकान्त धर्म है । समभाव, समता, समदृष्टि और साम्यभावना ये सब जैन धर्म के मूल-तत्व हैं । श्रम, शम और सम-ये तीन तत्व जैन विचार के मूल आधार हैं । मैंने अभी आपसे यह कहा था, कि अनेकान्त और स्याद्वाद अहिंसा के बौद्धिक रूप हैं । विचार की समता पर जब भार दिया गया, तब उसमें से अनेकान्त दृष्टि का जन्म हुआ । केवल अपनी दृष्टि को, अपने विचार को ही पूर्ण सत्य मान कर उस पर आग्रह रखना, यह समता के लिए घातक भावना है । साम्य भावना ही अनेकान्त है । अनेकान्त एक दृष्टि है, एक दृष्टिकोण है, एक भावना है, एक विचार है और सोचने एवं समझने की एक निष्पक्ष पद्धति है । जब अनेकान्त वाणी का रूप लेता है, भाषा का रूप लेता है, तब यह स्याद्वाद बन जाता है, और जब यह आचार का रूप लेता है, तब वह अहिंसा बन जाता है । अनेकान्त और स्याद्वाद में सबसे बड़ा अन्तर यह है, कि अनेकान्त विचार-प्रधान होता है और स्याद्वाद भाषा-प्रधान होता है । अतः दृष्टि जब तक विचार रूप है, तब तक वह अनेकान्त, दृष्टि जब वाणी का चोगा पहनती है, तब वह स्याद्वाद बन जाती है । दृष्टि जब आचार का रूप लेती है, तब वह अहिंसा बन जाती है । इस प्रकार इस विश्लेषण से यह सिद्ध होता है, कि अहिंसा और अनेकान्त दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जो विक्रम की पाँचवी शती के भारत के एक महान् दार्शनिक थे, उन्होंने अपने 'सन्मति तर्क' ग्रन्थ में अनेकान्तवाद को विश्व का गुरु कहा है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का कहना है, कि इस अनेकान्त के बिना लोक का व्यवहार नहीं चल सकता । मैं उस अनेकान्त को नमस्कार करता हूँ, जो जन-जन के जीवन को आलोकित करने वाला गुरु है । अनेकान्तवाद केवल तर्क का सिद्धान्त ही नहीं है, वह एक अनुभव-मूलक सिद्धान्त है । आचार्य हरिभद्र ने अपने एक ग्रन्थ में अनेकान्तवाद केवल तर्क का सिद्धार ही नहीं है, वह एक अनुभव-मूलक सिद्धान्त है । आचार्य हरिभद्र ने अपने एक ग्रन्थ में अनेकान्तवाद के सम्बन्ध में कहा है, कि-"कदाग्रही व्यक्ति की जिस विषय में मति होती है, उसी विषय में वह अपनी युक्ति (तर्क) को लगाता है । परन्तु एक निष्पक्ष व्यक्ति उस बात को स्वीकार करता है, जो युक्ति-सिद्ध होती है ।" अनेकान्त के व्याख्याकार आचार्यों में आचार्य सिद्धसेन ने अपने 'सन्मति-तर्क' ग्रन्थ में अनेकान्त की प्रौढ़ भाषा में और तर्क-पद्धति से व्याख्या की है । आचार्य समन्तभद्र ने अपने आप्त-मीमांसा २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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