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________________ अहिंसा और अनेकान्त अपना प्रवचन प्रारम्भ करते हुए कवि श्री जी ने कहा-"आपके इस विद्यालय का नाम स्याद्वाद विद्यालय है । स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद जैन-दर्शन और जैन-संस्कृति का एक आधारभूत सिद्धान्त है । जैन-संस्कृति में जो एक प्राण-निष्ठा है, उसका मूलाधार स्याद्वाद और अनेकान्तवाद ही है । जिस प्रकार वेदान्त सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु अद्वैतवाद और मायावाद है, जिस प्रकार सांख्य दर्शन का मूल आधार प्रकृति और पुरुष का विवेकवाद है, जिस प्रकार बौद्ध दर्शन का केन्द्र विज्ञानवाद और शून्यवाद है, उसी प्रकार जैन-संस्कृति और जैन दर्शन का मूल आधार, केन्द्र-बिन्दु और प्राण-शक्ति अहिंसावाद और अनेकान्तवाद ही है । अहिंसा के सम्बन्ध में अन्य सम्प्रदायों ने भी बहुत कुछ लिखा है । अपने धर्म के अन्य सिद्धान्तों के समान अहिंसा के सिद्धान्त को भी वे स्वीकार करते हैं, किन्तु अहिंसा का जिस प्रकार सूक्ष्म विश्लेषण और गहन विवेचन श्रमण-संस्कृति के साहित्य में उपलब्ध है, उतना अन्यत्र नहीं । श्रमण-संस्कृति के कण-कण में अहिंसा की भावना परिव्याप्त है । श्रमण-संस्कृति की प्रत्येक क्रिया और प्रत्येक कर्म अहिंसा-मूलक होता है । खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार तथा करना-कराना आदि सब में अहिंसा को मुख्यता और प्रधानता दी गई है । श्रमण-संस्कृति के अनुसार और विशेषतः जैन संस्कृति के अनुसार केवल धार्मिक क्रियाओं में ही अहिंसा का विधान नहीं है, किन्तु जीवन के दैनिक व्यवहार में भी अहिंसा का सुन्दर विधान किया गया है । विचार में अहिंसा, वाणी में अहिंसा और व्यवहार में अहिंसा-सर्वत्र अहिंसा दृष्टिगोचर होती है । आचार्य समन्त-भद्र के शब्दों में अहिंसा एक ऐसा ब्रह्म है, जो इस जगती के प्राण-प्राण में परिव्याप्त है । यह अहिंसारूप परब्रह्म यद्यपि सत्ता रूप में चेतनमात्र में रहता है, किन्तु इसकी जितनी सुन्दर अभिव्यक्ति और विकास मानव-जीवन में हो सका है, उतना अन्यत्र नहीं हो पाया है। जैन-संस्कृति के पास यदि अहिंसा है, तो सब कुछ है, यदि वह अहिंसा का परित्याग कर देती है, तो उसके पास कुछ भी शेष नहीं बचेगा । आज के इस अणु-युग में सांस लेने वाली मानव-जाति के लिए अहिंसा विशेष उपयोगी है। अहिंसा के सम्बन्ध में युग-युगान्तरों से जो प्रयोग किए गए हैं, - २१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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