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समाज और संस्कृति
मानवी व्यवहार और आचार का एक क्रियात्मक सिद्धान्त है । यहाँ पर दर्शन के सिद्धान्तों का मूल्यांकन जीवन की कसौटी पर किया गया है और धार्मिक सिद्धान्तों को बुद्धि की तुला पर तोला गया है । भारत के अध्यात्मवादी दर्शन की यह एक ऐसी विशेषता है, जो अतीतकाल के और वर्तमान काल के अन्य किसी देश के दर्शन में नहीं है । धर्म और दर्शन परस्पर सम्बद्ध हैं । उनमें कहीं पर भी विरोध और विषमता दृष्टिगोचर नहीं होती, सर्वत्र समन्वय और सामञ्जस्य ही भारतीय धर्म और संस्कृति का एक मात्र आधार रहा है ।
समन्वयवाद के आविष्कार करने वाले श्रमण भगवान महावीर हैं । भगवान महावीर के युग में जितने भी उनके समकालीन अन्य दार्शनिक थे, वे सब एकान्तवादी परम्परा की स्थापना कर रहे थे । उस युग का भारतीय दर्शन दो भागों में विभाजित था-एकान्त नित्यवादी और एकान्त अनित्यवादी । एकान्त भेदवादी और एकान्त अभेदवादी, एकान्त सदवादी और एकान्त असद्वादी । एकान्त एकत्ववादी और एकान्त अनेकत्ववादी । सब अपने-अपने एकान्तवाद को पकड़ कर अपने पंथ, सम्प्रदाय और परम्परा को स्थापित करने में संलग्न थे । सब सत्य का अनुसंधान कर रहे थे और सब सत्य की खोज कर रहे थे, किन्तु सबसे बड़ी भूल यह थी, कि उन्होंने अपने एकांशी सत्य को ही सर्वांशी सत्य मान लिया था । भगवान् महावीर ने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के वैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर समग्र दर्शनों का विश्लेषण किया और कहा अपनी-अपनी दृष्टि से सभी दर्शन सत्य हैं, परन्तु सत्य का जो रूप उन्होंने अधिगत किया है, वही सब कुछ नहीं है, उससे बिन्न भी सत्य की सत्ता शेष रह जाती है, जिसका निषेध करने के कारण वे एकान्तवादी बन गए हैं । उन्होंने अपने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा अपने युग के उन समस्त प्रश्नों को सुलझाया, जो आत्मा और परलोक आदि के सम्बन्ध में किए जाते थे । उदाहरण के लिए आत्मा को ही लीजिए, बौद्ध दार्शनिक आत्मा को एकान्त क्षणिक एवं अनित्य मान रहे थे । वेदान्तवादी दार्शनिक आत्मा को एकान्त नित्य और कूटस्थ मान रहे थे । भगवान महावीर ने उन सबका समन्वय करते हुए कहा-पर्याय-दृष्टि से अनित्यवाद ठीक है और द्रव्य-दृष्टि से नित्यवाद ठीक है । आत्मा में परिवर्तन होता है—इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता, परन्तु यह भी सत्य है कि परिवर्तनों में रह कर भी और परिवर्तित होता हुआ भी आत्मा कभी अपने मूल चिर स्वरूप
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