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समाज और संस्कृति
है । आज भी कर्मवाद के सम्बन्ध में जैनों के संख्याबद्ध ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । अध्यात्मवादी दर्शन को कर्मवादी होना आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक भी है । प्रश्न यह है, कि यह कर्म कहाँ से आता है, और क्यों आता है ? कर्म एक प्रकार का पुद्गल ही है; यह आत्मा से एक विजातीय तत्व हैं । राग और द्वेष के कारण आत्मा कर्मों से बद्ध हो जाता है । माया, अविद्या और अज्ञान से आत्मा का विजातीय तत्व के साथ जो संयोग हो जाता है, यही आत्मा की बद्ध दशा है । भारतीय दर्शन में विवेक और सम्यक् ज्ञान को आत्मा से कर्मत्व को दूर करने का उपाय माना है । आत्मा ने यदि कर्म बाँधा है, तो वह उससे विमुक्त भी हो सकता है । इसी आधार पर भारतीय दर्शनों में कर्म-मल को दूर करने के लिए अध्यात्म साधना का विधान किया गया है ।
__ भारतीय दर्शन की तीसरी विशेषता है, जन्मान्तरवाद अथवा पुनर्जन्म । जन्मान्तरवाद भी चार्वाक को छोड़ कर अन्य सभी दर्शनों का एक सामान्य सिद्धान्त है । यह कर्म के सिद्धान्त से फलित होता है । कर्मसिद्धान्त कहता है, कि शुभ कर्मों का फल शुभ मिलता है और अशुभ कर्मों का फल अशुभ । परन्तु सभी कर्मों का फल इसी जीवन में नहीं मिल सकता । इसलिए कर्म-फल को भोगने के लिए दूसरे जीवन की आवश्यकता है । यह संसार जन्म और मरण की एक अनादि श्रृंखला है । इसका कारण मिथ्याज्ञान और अविद्या है । जब तत्व-ज्ञान से अथवा यथार्थ बोध से पूर्वबद्ध कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है, तब इस संसार का भी अन्त हो जाता है । संसार बंध है और बंध का नाश ही मोक्ष है, बंध का कारण अज्ञान है और मोक्ष का कारण तत्व-ज्ञान है । जब तक आत्मा अपने पूर्वकृत कर्मों को भोग नहीं लेगा, तब तक जन्म और मरण का चक्र कभी परिसमाप्त नहीं होगा, यही जन्मान्तरवाद है ।
भारतीय दर्शनों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है—मोक्ष एवं मुक्ति । भारतीय दर्शनों का लक्ष्य यह रहा है, कि यह मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण के लिए साधक को निरन्तर प्रेरित करते रहें । मोक्ष का सिद्धान्त भारत के सभी अध्यात्मवादी दर्शनों को मान्य है । भौतिकवादी होने के कारण अकेला चार्वाक दर्शन ही इसको स्वीकार नहीं करता । भौतिकवादी चार्वाक जब इस शरीर से भिन्न आत्मा की सत्ता को स्वीकार ही नहीं करता, तब उसके विचार में मोक्ष का उपयोग और महत्त्व ही क्या रह जाता है ? बौद्ध दर्शन में आत्मा के मोक्ष को निर्वाण कहा गया है । निर्वाण
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