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समाज और संस्कृति
और आप्त-प्रमाण की वह घोर उपेक्षा करता है । इसके विपरीत भारतीय दर्शन आध्यात्मिक चिन्तन से प्रेरणा पाता है । भारतीय दर्शन एक आध्यात्मिक खोज है । वस्तुतः भारतीय दर्शन जो चेतन और परम चेतन के स्वरूप की खोज करता है, उसके पीछे एकमात्र उद्देश्य यही है, कि मानव-जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना । एक बात और है, भारत में दर्शन और धर्म सहचर और सहगामी रहे हैं । धर्म और दर्शन में यहाँ पर न किसी प्रकार का विरोध है और न उन्हें एक दूसरे से अलग रखने का ही प्रयत्न किया गया है । दर्शन सत्ता की मीमांसा का है और उसके स्वरूप को तर्क और विचार से पकड़ता है, जिससे कि मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही कारण है, कि भारतीय दर्शन एक बौद्धिक विलास नहीं है । बल्कि एक आध्यात्मिक खोज है । धर्म क्या है ? वह अध्यात्म सत्य को अधिगत करने का एक व्यावहारिक उपाय है । भारत में दर्शन इतना व्यापक है, कि भारत के प्रत्येक धर्म की शाखा ने अपना एक दार्शनिक आधार तैयार किया है । पाश्चात्य Philosophy शब्द और पूर्वी दर्शन शब्द की परस्पर में तुलना नहीं की जा सकती । Philosophy शब्द का अर्थ होता है-ज्ञान का प्रेम, जब कि दर्शन का अर्थ है--सत्य का साक्षात्कार करना । दर्शन का अर्थ है-दृष्टि । दर्शनशास्त्र सम्पूर्ण सत्ता का दर्शन है, फिर भले ही वह सत्ता चेतन हो अथवा अचेतन । भारतीय दर्शन का मूल आधार चिन्तन और अनुभव रहा है । विचार के साथ आचार की भी इसमें महिमा और गरिमा रही है । __आज के भाषण का मुख्य विषय है-भारतीय दर्शनों में समन्वय परम्परा । प्रश्न होता है, कि भारतीय दर्शनों में विषमता कहाँ है ? मुझे तो कहीं पर भी भारतीय दर्शनों में विषमता दृष्टिगोचर नहीं होती है । बात यह है, कि अनेकान्तवाद की दृष्टि से विचार करने पर हमें सर्वत्र समन्वय और सामञ्जस्य ही दृष्टिगोचर होता है, कहीं पर भी विरोध और विषमता नहीं मिलती । भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया गया है, उनका वर्गीकरण किसी भी पद्धति से क्यों न किया जाए, किन्तु उनका गम्भीर अध्ययन और चिन्तन करने से ज्ञात होता है, कि एक चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के शेष समस्त दर्शनों का-जिसमें वैदिक दर्शन, बौद्धदर्शन और जैन दर्शन की समग्र शाखाओं एवं उपशाखाओं का समावेश हो जाता है, उन सबका मूल ध्येय रहा है, आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन और मोक्ष की प्राप्ति । अतः मैं भारतीय दर्शन को दो
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