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समाज और संस्कृति
जैन-दर्शन के अनुसार जहाँ पर सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र होता है, वहाँ पर सम्यग्दर्शन अवश्य ही होता है । आगमों में दर्शन, ज्ञान और चारित्र के साथ तप को भी मोक्ष प्राप्ति में, एवं मुक्ति की उपलब्धि में उपाय व कारण माना गया है । इस अपेक्षा से जैन-दर्शन में मोक्ष के हेतु दो एवं चार सिद्ध होते हैं । परन्तु गम्भीरता से विचार करने पर यह ज्ञात होता है, कि वास्तव में मोक्ष के हेतु तीन ही हैं-श्रद्धान, ज्ञान और आचरण । बद्ध कर्मों से मुक्त होने के लिए साधक संवर की साधना से नवीन कर्मों के आगमन को रोक देता है और निर्जरा की साधना से पूर्व संचित कर्मों को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है । समस्त कर्मों का सर्वतोभावेन नष्ट हो जाना ही मोक्ष एवं मुक्ति है । कर्म-मल-विमुक्त आत्मा ही जैन-दर्शन के अनुसार अन्त में परमात्मा हो जाता है । कर्मवाद की उपयोगिता
प्रश्न होता है, कि आखिर जीवन में कर्मवाद की उपयोगिता क्या है ? कर्मवाद को क्यों स्वीकार किया जाए ? उक्त प्रश्नों का समाधान करते हुए कहा गया है कि कर्मवाद मानव-जीवन में आशा एवं स्फूर्ति का संचार करता है । मानव को विकास-पथ पर बढ़ाने के लिए उत्साह प्रदान करता है । कर्मवाद की सबसे बड़ी उपयोगिता यही है, कि वह मानव-आत्मा को दीनता एवं हीनता के गहन गह्वर से निकाल कर विकास के चरम शिखर पर पहुँचने की सतत प्रेरणा करता है । जब मानव-जीवन हताश और निराश हो जाता है, अपने चारों ओर उसे अन्धकार ही अन्धकार दृष्टिगोचर होता है, जब कि गन्तव्य मार्ग का परिज्ञान भी विलुप्त हो जाता है, उस समय उस विह्वल आत्मा को कर्मवाद धैर्य और शान्ति प्रदान करता है । वह कहता है, कि मानव यह सब तूने स्वयं ने किया है और जो कुछ किया है, उसका फल भी तुझे स्वयं को भोगना है । कभी यह हो नहीं सकता है, कर्म तू स्वयं करे और उसका फल भोगने वाला कोई दूसरा आए । जब मनुष्य अपने दुःख और कष्ट में स्वयं अपने को कारण मान लेता है, तब उस कर्म के फल भोगने की शक्ति भी उसमें प्रकट हो जाती है । इस प्रकार कर्मवाद पर पूर्ण विश्वास हो जाने के बाद जीवन में से निराशा, तमिस्रा और आत्म-दीनता दूर हो जाती है । उसके लिए जीवन भोग-भूमि न रहकर कर्तव्य-भूमि बन जाता है । जीवन में आने वाले सुख एवं दुःख के झंझावातों से उसका मन प्रकम्पित
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