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________________ समाज और संस्कृति स्वाभाविक गुणों को आच्छादित करने की शक्ति है, इसमें जरा भी असत्य नहीं है, पर आत्मा को आच्छादित करने वाले कर्म कितने भी प्रगाढ़ क्यों न हों, उनमें आत्मा के एक भी गुण को मूलतः नष्ट करने की शक्ति नहीं है । दूसरी बात यह है, कि जैसे सूर्य स्वयं मेघों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो जाता है और फिर वही सूर्य अपनी शक्ति से उन्हें छिन्न-भिन्न भी कर डालता है । इसी प्रकार आत्मा भी स्वयं कर्मों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो जाता है, और फिर स्वयं ही उन कर्मों को निर्जरा के द्वारा छिन्न-भिन्न भी कर डालता है। कर्म की शक्ति अनन्त मानने पर भी उसकी अपेक्षा आत्मा की शक्ति अधिक है । कर्म शक्तिशाली होते हुए भी जड़ हैं और आत्मा चैतन्य-रूप है । अतः आत्मा का संकल्प ही कर्म को उत्पन्न करता है और आत्मा का संकल्प ही कर्म को नष्ट कर डालता है । आपके जितने भी कर्म हैं, चाहे वे कितने ही बलवान् क्यों न हों, लेकिन आत्मा के बल के आगे वे कुछ नहीं हैं, क्योंकि कर्म को जो रूप मिला है, वह आपके ही संकल्पों से मिला है । आपको अपने इस वर्तमानं जीवन में कर्मों का जो रूप मिला है, यदि उसे आप नष्ट करना चाहते हैं, तो उसे नष्ट करने की शक्ति आपके अन्दर है । लेकिन जब तक आत्मा में अज्ञान है और जब तक उसे अपने स्वरूप का भान नहीं है, तभी तक वह बन्धन में बद्ध रहता है । आपकी आत्मा केवल आत्मा ही नहीं है, बल्कि वह परमात्मा भी है । कर्म की शक्ति से भय-भीत होने की आवश्यकता नहीं है । जब आपकी आत्मा में अनन्त शक्ति है, तब भय किस बात का । चैतन्य स्वरूप आत्मा को कर्म से भय-भीत होने की आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता इस बात की है, कि आप अनन्त-अनन्त काल से विस्मृत अपने स्वरूप और अपनी शक्ति का परिबोध प्राप्त करने का प्रयत्न करें, इसी पर आपकी सफलता है । कुछ लोग कहा करते हैं, कि कर्म जब हल्के हों, तब आत्मा की शुद्धि हो, आत्मा पवित्र हो । और आत्मा की विशुद्धि एवं पवित्रता होने पर ही कर्म हल्के होते हैं । यह एक अन्योन्याश्रय दोष है । आत्मा की शुद्धि होने पर कर्म का हल्का होना और कर्म के हल्के होने पर आत्मा की विशुद्धि होना, इस प्रकार का अन्योन्याश्रित चिन्तन जैन दर्शन का मूल चिन्तन नहीं है । आत्मा की विशुद्धि और आत्मा की विमुक्ति कर्म के हल्के होने पर नहीं, बल्कि आत्मा के प्रसुप्त पुरुषार्थ को जागृत करने से - १८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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